गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 7

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पहला अध्याय
प्रास्ताविक आख्यायिका: अर्जुन का विषाद
3. गीता का प्रयोजन: स्वधर्म-विरोधी मोह का निरसन

13. दूसरे का धर्म सरल मालूम हो, तो भी उसे स्वीकार नहीं करना चाहिए। बहुत बार सरलता आभास मात्र ही होती है। घर-गृहस्थी में बाल-बच्चों की ठीक संभाल नहीं कर पाता, इसलिए ऊबकर यदि कोई गृहस्थ संन्यास ले ले, तो वह ढोंग होगा और भारी भी पड़ेगा। मौका पाते ही उसकी वासनाएं जोर पकड़ेंगी। संसार का बोझ उठाया नहीं जाता, इसलिए जंगल में जाने वाला पहले वहाँ छोटी सी कुटिया बनायेगा। फिर उसकी रक्षा के लिए बाड़ लगायेगा। ऐसा करते-करते उस पर वहाँ सवाया संसार खड़ा करने की नौबत आ जायेगी। यदि सचमुच मन में वैराग्यवृत्ति हो, तो फिर संन्यास भी कौन कठिन बात है ? संन्यास को आसान बताने वाले स्मृति वचन तो हैं ही। परन्तु मुख्य बात वृत्ति की है। जिसकी जो सच्ची वृत्ति होगी, उसी के अनुसार उसका धर्म होगा। श्रेष्ठ-कनिष्ठ, सरल-कठिन का यह प्रश्न नहीं है। विकास सच्चा होना चाहिए। परिणति सच्ची होनी चाहिए।

14. परन्तु कुछ भावुक व्यक्ति पूछते हैं- "यदि युद्ध-धर्म से संन्यास सदा ही श्रेष्ठ है, तो फिर भगवान ने अर्जुन को सच्चा संन्यासी ही क्यों नहीं बनाया? उनके लिए क्या यह असंभव था?" उनके लिए असंभव तो कुछ भी नहीं था परन्तु फिर उसमें अर्जुन का पुरुषार्थ ही क्या रह जाता? परमेश्वर ने स्वतंत्रता दे रखी है। अतः हर आदमी अपने लिए प्रयत्न करता रहे, इसी में मजा है। छोटे बच्चों को स्वयं चित्र बनाने में आनन्द आता है। उन्हें यह पंसद नहीं आता कि कोई उनसे हाथ पकड़कर चित्र बनवाये। शिक्षक यदि बच्चों के सवाल झट् हलकर दिया करें, तो फिर बच्चों की बृद्धि बढ़ेगी कैसे? मां-बाप और गुरु का काम सिर्फ सुझाव देना है। परमेश्वर अंदर से हमें सुझाता रहता है। इससे अधिक वह कुछ नहीं करता। कुम्हार की तरह भगवान ठोंक-पीटकर अथवा थपथपाकर हर एक का मटका तैयार करे, तो उसमें मजा ही क्या? हम हंड़िया नहीं हैं, हम तो चिन्मय हैं।

15. इस सारे विवेचन से एक बात आपकी समझ में आ गयी होगी कि गीता का जन्म, स्वधर्म में बाधक जो मोह है, उसके निवारणार्थ हुआ है। अर्जुन धर्म-संमूढ़ हो गया था। स्वधर्म के विषय में उसके मन में मोह पैदा हो गया था। श्रीकृष्ण के पहले उलाहने के बाद यह बात अर्जुन खुद ही स्वीकार करता है। वह मोह, वह ममत्व, वह आसक्ति दूर करना गीता का मुख्य काम है। इसीलिए सारी गीता सुना चुकने के बाद भगवान ने पूछा है- "अर्जुन, तेरा मोह गया न?" और अर्जुन जवाब देता है, "हाँ भगवन, मोह नष्ट हो गया, मुझे स्वधर्म का भान हो गया।" इस तरह यदि गीता के उपक्रम और उपसंहार को मिलाकर देखें, तो मोह-निरसन ही उसका तात्पर्य निकलता है। गीता ही नहीं, सारे महाभारत का यही उद्देश्य है। व्यास जी ने महाभारत के प्रारंभ में ही कहा है कि लोक हृदय के मोहावरण को दूर करने के लिए मैं यह इतिहास-प्रदीप जला रहा हूँ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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