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सातवां अध्याय
प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता
32. भक्ति का भव्य दर्शन
3. आत्मा और देह, परा और अपरा प्रकृति, सर्वत्र एक ही है, फिर भी मनुष्य मोह में क्यों पड़ जाता है? भेद क्यों दिखायी देता है? प्रेमी मनुष्य का चेहरा मधुर मालूम होता है, तो किसी दूसरे को देखकर तबीयत हटती है। एक से मिलने की और दूसरे को टालने की तबीयत क्यों होती है? एक ही पेंसिल, एक ही कागज, एक ही चित्रकार, परन्तु नाना चित्रों से नाना भाव प्रकट होते हैं। इसी में तो चित्रकार की कुशलता है। चित्रकार की, सितारिये की उंगलियों में ऐसी कुशलता है कि वे हमें रुला देते हैं, हंसा देते हैं। यह सारी खूबी उनकी उन उंगलियों में है।
यह निकट रहे, वह दूर रहे; यह मेरा, वह पराया- ऐसे जो विचार मन में आते हैं और जिनके चलते मनुष्य मौके पर कर्तव्य से कतराने लगता है, उसका कारण मोह है। इस मोह से बचना हो तो उस सृष्टि-निर्माता की उंगली की करामात का रहस्य समझ लेना चाहिए। बृहदारण्यक उपनिषद में नगाड़े का दृष्टांत दिया है। एक ही नगाड़े से भिन्न-भिन्न नाद निकलते हैं कुछ नादों से मैं डर जाता हूं, कुछ को सुनकर नाच उठता हूँ। उन सब भावों को यदि जीत लेना है, तो नगाड़ा बजाने वाले को पकड़ लेना चाहिए। उसके पकड़ में आते ही सारे नाद पकड़ में आ जाते हैं। भगवान एक ही वाक्य में कहते हैं- "जो माया को तर जाना चाहते हैं वे मेरी शरण आयें।"
येथ एकचि लीला तरले। जे सर्व भावें मज भजले।
तयां ऐलीच थडी सर लें। मायाजळ॥
-‘यहाँ वही व्यक्ति लीला को तरते है, जो सर्वभाव से मेरा भजन करते हैं। उनके लिए इसी किनारे मायाजाल सूख गया है।’
तो यह माया क्या है ? माया कहते है परमेश्वर की शक्ति को, उसकी कला को, उसकी कुशलता को। आत्मा और प्रकृति- अथवा जैन परिभाषा में कहें, तो जीव और अजीवरूपी इस मसाले से जिसने यह अनंत रंगोंवाली सृष्टि रची है, उसकी शक्ति अथवा कला ही ‘माया’ है। जेलखाने में जैसे एक ही अनाज की वह रोटी और वही एक सर्वरसी दाल होती है, वैसे ही एक अखंड आत्मा और एक ही अष्टधा शरीर समझो। इससे परमेश्वर तरह-तरह की चीजें बनाता रहता है। हम इन चीजों को देखकर अनेक विरोधी, अच्छे-बुरे भावों का अनुभव करते हैं। इसके परे जाकर यदि हम सच्ची शांति पाना चाहते हैं, तो इन वस्तुओं के निर्माता को पकड़ना चाहिए, उससे परिचय कर लेना चाहिए। उससे जान-पहचान होने पर ही यह भेद-मूलक, आसक्ति-जन्य मोह टाला जा सकेगा।
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