छठा अध्याय
चित्तवृत्ति-निरोध
31. अभ्यास, वैराग्य और श्रद्धा
28. ज्ञानदेव ने ‘ज्ञानेश्वरी’ में इस प्रसंग पर लिखी ओवियों में मानों अपना आत्मचरित्र ही लिख दिया है! बालपणीं च सर्वज्ञता। वरी तयातें। -‘शैशव में ही उन्हें सर्वज्ञता वरण करती है। सारे शास्त्र स्वयं ही मुख से निकलते हैं’ आदि वचनों में यह बात दीख पड़ती है। पूर्वजन्म का अभ्यास आपको खींच लेता है। किसी-किसी का चित्त विषयों की ओर जाता ही नहीं। वह जानता ही नहीं कि मोह कैसे होता है; क्योंकि पूर्वजन्म में वह उसकी साधना कर चुका है। भगवान ने आश्वासन दिया है - न हि कल्याणकृत्कश्चित् दुर्गतिं तात गच्छति- जो मनुष्य कल्याण-मार्ग पर चलता है, उसका जरा भी श्रम व्यर्थ नहीं जाता। अंत में इस तरह की श्रद्धा बतायी है। जो कुछ अपूर्ण है, वह अंत में पूरा होकर रहेगा। भगवान के इस उपदेश का स्वारस्य ग्रहण करिये और अपने जीवन को सार्थक कीजिये।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ रविवार, 27-3-32
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