गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 61

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छठा अध्याय
चित्तवृत्ति-निरोध
31. अभ्यास, वैराग्य और श्रद्धा

28. ज्ञानदेव ने ‘ज्ञानेश्वरी’ में इस प्रसंग पर लिखी ओवियों में मानों अपना आत्मचरित्र ही लिख दिया है!

बालपणीं च सर्वज्ञता। वरी तयातें।
सकळ शास्त्रें स्वयंभें। निघतीं मुखें॥

-‘शैशव में ही उन्हें सर्वज्ञता वरण करती है। सारे शास्त्र स्वयं ही मुख से निकलते हैं’ आदि वचनों में यह बात दीख पड़ती है। पूर्वजन्म का अभ्यास आपको खींच लेता है। किसी-किसी का चित्त विषयों की ओर जाता ही नहीं। वह जानता ही नहीं कि मोह कैसे होता है; क्योंकि पूर्वजन्म में वह उसकी साधना कर चुका है।

भगवान ने आश्वासन दिया है - न हि कल्याणकृत्कश्चित् दुर्गतिं तात गच्छति- जो मनुष्य कल्याण-मार्ग पर चलता है, उसका जरा भी श्रम व्यर्थ नहीं जाता। अंत में इस तरह की श्रद्धा बतायी है। जो कुछ अपूर्ण है, वह अंत में पूरा होकर रहेगा। भगवान के इस उपदेश का स्वारस्य ग्रहण करिये और अपने जीवन को सार्थक कीजिये।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. रविवार, 27-3-32

संबंधित लेख

गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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