गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 60

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छठा अध्याय
चित्तवृत्ति-निरोध
31. अभ्यास, वैराग्य और श्रद्धा

25.तात्पर्य यह है कि ध्यानयोग के लिए चित्त की एकाग्रता, जीवन की परिमितता और शुभ-साम्य-दृष्टि की जरूरत है। इसके सिवा और भी दो साधन बताये हैं- वैराग्य और अभ्यास। एक है विध्वंसक और दूसरा है विधायक। खेत से घास उखाड़कर फेंकना विध्वंसक काम हुआ। इसी को ‘वैराग्य’ कहते हैं। उसमें बीज बोना विधायक काम है। मन में सद्विचारों का पुनः पुनः चिंतन करना ‘अभ्यास’ कहलाता है। वैराग्य विध्वंसक क्रिया है, अभ्यास विधायक क्रिया।

26. अब वैराग्य आये कैसे? हम कहते हैं- ‘आम मीठा है’, परन्तु क्या यह मिठास निरे आम में है? नहीं, निरे आम में नहीं है। हम अपनी आत्मा की मिठास वस्तु में डालते हैं और फिर वह वस्तु मीठी लगती है। अतः भीतरी मिठास को चखना सीखो। केवल बाह्य वस्तु में मधुरता नहीं है, बल्कि वह रसानां रसतमः माधुर्य- सागर आत्मा मेरे पास है, उसी की बदौलत मीठी वस्तुओं को मिठास मिली है, ऐसी भावना करते रहने से मन में वैराग्य का संचार होता है। सीता माता ने हनुमान को मोतियों का हार दिया। हनुमान मोतियों को चबाता, देखता और फेंक देता। उनमें उसे कहीं ‘राम’ दिखायी नहीं देता था। राम तो था उसके हृदय में उन मोतियों के लिए मूर्ख लोग लाख रूपये दे देते।

27. इस ध्यान-योग का वर्णन करते हुए भगवान ने एक बहुत ही महत्त्व की बात शुरू में ही बता दी है। वह यह कि मनुष्य को ऐसा दृढ़ संकल्प करना चाहिए कि ‘मुझे खुद अपना उद्धार करना है। मैं आगे बढूंगा। मैं ऊंची उड़ान भरूंगा। इस नर-देह में मैं ज्यों-का-त्यों पड़ा नहीं रहूंगा। परमेश्वर के पास जाने का हिम्मत के साथ प्रयत्न करूंगा।’

यह सब सुनते-सुनते अर्जुन के मन में शंका उठी कि ‘‘भगवन, अब तो हमारी उम्र बीत गयी। कुछ दिनों में हम मर जायेंगे, तो फिर यह साधना किस काम आयेगी? भगवान ने कहा- "मृत्यु का अर्थ तो है लंबी नींद।" रोज का काम करके हम सात-आठ घंटे सोते हैं। इस नींद से कोई डरता है? बल्कि नींद न आये, तो फ़िक्र पड़ जाती है। जैसे नींद जरूरी, वैसे ही मौत भी जरूरी है। जैसे नींद से उठकर फिर हम अपना काम प्रारंभ कर देते हैं, वैसे ही मरण के बाद भी पहले की यह सारी साधना हमारे काम आयेगी।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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