गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 50

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छठा अध्याय
चित्तवृत्ति-निरोध
25. आत्मोद्धार की आकांक्षा

3. अतएव ‘मैं जड हूं, व्यवहारी हूं, सांसारिक जीव हूं’- ऐसा कहकर अपने आसपास बाड़ मत लगाओ। मत करो कि ‘मेरे हाथों से क्या होगा? इस साढ़े तीन हाथ के शरीर में ही मेरा सार-सर्वस्व है।’ ऐसी बंधनों की या कारागृह जैसी दीवारें अपने आसपास खड़ी करके पशुवत व्यवहार मत करो। तुम तो आगे बढ़ने की, ऊपर चढ़ने की हिम्मत रखो- उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्। ऐसी हिम्मत रखो कि मैं अपने को अवश्य ऊपर ले जाऊंगा। यह मानकर कि मैं क्षुद्र सांसारिक जीव हूं, मन की शक्ति को मार मत डालो। कल्पना के पंख काटो मत। अपनी कल्पना को विशाल बनाओ। चंडूल का उदाहरण अपने सामने रखो। प्रातः काल सूर्य को देखकर चंडूल कहता है कि मैं सूर्य तक उड़ जाऊंगा। वैसा ही हमें बनना चाहिए। अपने दुर्बल पंखों से चंडूल बेचारा कितना ही ऊंचा उड़े, तो भी वह सूर्य तक कैसे पहुँचेगा? परन्तु अपनी कल्पना-शक्ति द्वारा वह सूर्य को अवश्य पा सकता है। हमारा आचरण उससे उलटा होता है। हम जितने ऊंचे जा सकते थे, उतने भी न जाकर अपनी कल्पना और भावनाओं पर प्रतिबंध लगाकर अपने-आपको नीचे गिरा लेते हैं। अपने पास जो शक्ति है, उसे भी हम हीनभावना के कारण नष्ट कर डालते हैं। जहाँ कल्पना के ही पांव टूट गये, वहाँ फिर नीचे गिरने के सिवा क्या गति होगी? अतः कल्पना का रुख हमेशा ऊपर की ओर होना चाहिए। कल्पना की सहायता से मनुष्य आगे बढ़ता है, अतः कल्पना को सिकोड़ मत डालो। धोपट मार्गा सोडुं नको। संसारामधिं ऐस आपुला उगा च भटकत फिरूं नको- ‘घिसे-पिटे मार्ग को मत छोड़ो। संसार में अपनी जगह चुपचाप पड़े रहो। इधर-उधर व्यर्थ भटका मत करो’- ऐसा रोना मत रोते रहो। आत्मा का अपमान मत कर लो। साधक के पास यदि विशाल कल्पना होगी, आत्मविश्वास होगा, तभी वह टिक सकेगा। इसी से उद्धार होगा। परन्तु "धर्म तो साधु-संतों के लिए ही है, साधु-संतों के पास गये भी तो 'तुम जिस भूमिका में हो, उसमें यही व्यवहार उचित है' ऐसा उनसे प्रशस्ति-पत्र लेने के लिए"- ऐसी कल्पना छोड़ दो। ऐसी भेदात्मक कल्पानाएं करके अपने को बंधन में मत डालो। यदि उच्च आकांक्षा नहीं रखोगे, तो कभी भी एक कदम आगे नहीं बढ़ सकोगे।

यह दृष्टि, यह आकांक्षा, यह महान भावना यदि हो, तब तो साधनों की उठा-पटक आवश्यक है; नहीं तो फिर सारा किस्सा ही समाप्त। बाह्य कर्म की सहायता के लिए मानसिक साधनरूपी विकर्म बताया है। कर्म की सहायता के लिए विकर्म निरंतर चाहिए। इन दोनों की सहायता से अकर्म की जो दिव्य स्थिति प्राप्त होती है, वह और उसके प्रकार पांचवें अध्याय में देखें। इस छठे अध्याय से विकर्म के प्रकार बताये गये हैं। मानसिक साधना बतायी गयी है। इस मानसिक साधना को समझाने से पहले गीता कहती है-

‘"हे मेरे जीव, तुम देव हो सकते हो। तु यह दिव्य आकांक्षा रखो, मन को मुक्त रखकर उसके पंखों को सुदृढ़ बनाओ।"

साधना के - विकर्म के भिन्न-भिन्न प्रकार हैं। भक्तियोग, ध्यान, ज्ञान-विज्ञान, गुण-विकास, आत्मानात्म -विवेक आदि नाना प्रकार हैं। छठे अध्याय में ‘ध्यान-योग’ नामक साधना का प्रकार बताया गया है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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