पांचवा अध्याय
दुहरी अकर्मावस्थाः योग और संन्यास
24. फिर भी संन्यास से कर्मयोग विशेष माना गया है
30. देहधारी मनुष्य के लिए सुलभता की दृष्टि से निर्गुण की अपेक्षा सगुण श्रेष्ठ है। कर्म करते हुए भी उसे उड़ा देने की युक्ति, कर्म न करते हुए कर्म करने की अपेक्षा श्रेष्ठ है, क्योंकि उसमें सुलभता है। कर्मयोग में प्रयत्न, अभ्यास के लिए जगह है। जब इंद्रियों को अपने वश में करके धीरे-धीरे सब उद्योगों से मन हटा लेने का अभ्यास कर्मयोग में किया जा सकता है। यह युक्ति आज न सधी, तो भी सधने जैसी है। कर्मयोग अनुकरण-सुलभ है, यही संन्यास की अपेक्षा उसकी विशेषता है। परन्तु पूर्णावस्था में कर्मयोग और संन्यास, दोनों समान ही हैं। पूर्ण संन्यास और पूर्ण कर्मयोग, दोनों एक ही हैं। नाम दो हैं, देखने में अलग-अलग है, परन्तु असल में दोनों है एक ही। एकप्रकार में कर्म का भूत बाहर नाचता हुआ दिखायी देता है, परन्तु भीतर शांति है। दूसरे प्रकार में कुछ न करते हुए त्रिभुवन को हिला डालने की शक्ति है। जैसा दीख पड़ता है, वैसा न होना- यह दोनों का स्वरूप है। पूर्ण कर्मयोग संन्यास है, तो पूर्ण संन्यास कर्मयोग है। कोई भेद नहीं, परन्तु साधक के लिए कर्मयोग सुलभ है। पूर्णावस्था में दोनों एक ही हैं। 31. ज्ञानदेव को चांगदेव ने एक पत्र भेजा। वह सिर्फ कोरे कागज का पत्र था। चांगदेव से ज्ञानदेव उम्र में छोटे थे। ‘चिरंजीव’ लिखते हैं तो ज्ञानदेव ज्ञान में श्रेष्ठ। ‘पूज्य’ लिखते हैं, तो उम्र में कम। तब सिरनामा क्या लिखें? इसका कुछ निश्चय नहीं हो पाता था। अतः चांगदेव ने कोरा कागज ही भेज दिया। वह पहले निवृत्तिनाथ के हाथ में पड़ा। उन्होंने उसे पढ़कर ज्ञानदेव को दे दिया। ज्ञानदेव ने पढ़ा और मुक्ताबाई को दे दिया। मुक्ताबाई ने पढ़कर कहा- "चांगदेव इतना बड़ा हो गया है, पर है अभी कोरा-का-कोरा ही।" निवृत्तिनाथ ने और ही अर्थ पढ़ा था। उन्होंने कहा- "चांगदेव कोरे हैं, शुद्ध हैं, निर्मल हैं, उपदेश देने योग्य हैं।" फिर ज्ञानदेव से पत्र का जबाव देने के लिए कहा। ज्ञानदेव ने 65 ओवियों[1] का पत्र भेजा। उसे ‘चांगदेव-पासष्टी’ कहते हैं। ऐसी इस पत्र की मनोरंजक कथा है। लिखा हुआ पढ़ना सरल है, परन्तु न लिखा हुआ पढ़ना कठिन। उसका पढ़ना कभी समाप्त नहीं होता। इसी तरह संन्यासी रीता-कोरा दिखायी दे, तो भी उसमें अपरंपार कर्म भरा रहता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ एक प्रचलित मराठी छंद
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