गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 46

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पांचवा अध्याय
दुहरी अकर्मावस्थाः योग और संन्यास
24. फिर भी संन्यास से कर्मयोग विशेष माना गया है

28. बात यद्यपि ऐसी है, तथापि भगवान ने एक बिंदू चढ़ा ही दिया है। भगवान कहते हैं- "संन्यास से कर्मयोग श्रेष्ठ है।" जब दोनों ही एक-से हैं, तो फिर भगवान ऐसा क्यों कहते हैं? इसमें क्या रहस्य है? जब भगवान कहते हैं कि कर्मयोग श्रेष्ठ है, तब वे साधक की दृष्टि से कहते हैं। बिलकुल कर्म न करते हुए सब कर्म करने की विधि एक सिद्ध के लिए ही शक्य है, साधक के लिए नहीं। परन्तु सब कर्म करके भी कुछ न करना, इस तरीके का थोड़ा-बहुत अनुकरण किया जा सकता है। एक विधि ऐसी है, जो साधक के लिए शक्य नहीं, सिर्फ सिद्ध के लिए ही शक्य है। दूसरी ऐसी है, जो साधक के लिए भी थोड़ी-बहुत शक्य है। बिलकुल कर्म न करते हुए कर्म कैसे करना, यह साधक के लिए एक पहेली ही रहेगी। यह उसकी समझ में नही आ सकता। कर्मयोग साधक के लिए मार्ग भी है और मंजिल भी है, परन्तु संन्यास तो आखिरी मंजिल पर ही है, मार्ग में नहीं है। इसी कारण साधक की दृष्टि से संन्यास की अपेक्षा कर्मयोग श्रेष्ठ है।

29. इसी न्याय से भगवान ने आगे बारहवें अध्याय में निर्गुण की अपेक्षा सगुण को विशेष माना है। सगुण में सब इंद्रियों के लिए काम है, निर्गुण में ऐसा नहीं है। निर्गुण में हाथ बेकार, पांव बेकार, आंखें बेकार- सब इंद्रियां कर्मशून्य ही रहती हैं। साधक से यह सब नहीं सध सकता। परन्तु सगुण में ऐसी बात नहीं है। आंखों से रूप देख सकते हैं, कानों से कीर्तन सुन सकते हैं, हाथों से पूजा कर सकते हैं, लोगों की सेवा कर सकते हैं, पांवों से तीर्थयात्रा हो सकती है। इस तरह सब इंद्रियों को काम देकर उनसे वैसा काम कराते हुए धीरे-धीरे उन्हें हरिमय बना देना सगुण में शक्य रहता हैं परन्तु निर्गुण में सब बंद- जीभ बंद, कान बंद, हाथ-पैर बंद। यह सारा ‘बंदी’ प्रकार देखकर बेचारा साधक घबरा जाता है। फिर उसके चित्त में निर्गुण पैठैगा कैसे? वह यदि खामोश बैठा रहेगा, तो उसके चित्त में ऊटपटांग विचार आने लगेंगे। इंद्रियों का यह स्वभाव ही है कि उन्हें कहते हैं कि न करो, तो वे जरूर करेंगी। विज्ञापनों में क्या ऐसा नहीं होता? ऊपर लिखते हैं ‘मत पढ़ो।’ तो पाठक मन में कहता है कि यह जो न पढ़ने को लिखा है, तो पहले इसी को पढ़ों। ‘मत पढ़ो’ कहना इसी उद्देश्य से होता है कि पाठक उसे जरूर पढ़े। मनुष्य अवश्य ही उसे ध्यानपूर्वक पढ़ता है। निर्गुण में मन भटकता रहेगा। सगुण भक्ति में ऐसी बात नहीं। वहाँ आरती है, पूजा है, सेवा है, भूतदया है, इंद्रियो के लिए वहाँ काम है। इन्हीं इंद्रियों को ठीक काम में लगाकर फिर मन से कहो- ‘‘अब जाओ, जहाँ जी चाहे।’’ परन्तु तब मन नहीं जायेगा। वही रमा रहेगा, अनजाने ही एकाग्र हो जायेगा। परन्तु यदि उसे जान-बूझकर एक स्थान पर बैठाना चाहोगे, तो वह भागा ही समझो। भिन्न-भिन्न इंद्रियों को उत्तम, सुंदर काम में लगा दो, फिर मन को खुशी से भटकने के लिए कह दो। वह नहीं भटकेगा। उसे जाने की बिलकुल छुट्टी दे तो, तो वह कहेगा- "लो, मैं यहीं बैठ गया।" यदि उसे हुक्म दिया कि "चुप बैठो" तो कहेगा "मैं यह चला।"

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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