पांचवा अध्याय
दुहरी अकर्मावस्थाः योग और संन्यास
20. अकर्म का दूसरा पहलू: संन्यास
15. परन्तु यह तो संन्यास का सिर्फ एक प्रकार हुआ। वह कर्म करके भी नहीं करता, यह उसकी स्थिति एक पहलू हुआ। वह कुछ भी कर्म नहीं करता, फिर भी सारी दुनिया को कर्म करने में प्रवृत्त करता है, यह उसका दूसरा पहलू है। उसमें अपरंपार प्रेरक शक्ति है। अकर्म की खूबी भी यही है। अकर्म में अनंत कार्य के लिए आवश्यक शक्ति भरी रहती है। भाप का भी ऐसा ही है न? भाप को रोककर रखिए, वह कितना प्रचंड कार्य करती है। उस रोकी हुई भाप में अपार शक्ति आ जाती है। बड़े-बड़े जहाज और रेल-गाड़ियों को बात-की बात में खींच ले जाती है। सूर्य की भी ऐसी ही बात है। वह लेश-मात्र भी कर्म नहीं करता, परन्तु चौबीस घंटे लगातार काम करता है। उससे पूछेंगे तो वह कहेगा- "मैं कुछ नहीं करता।" रात-दिन कर्म करते हुए न करना जैसे सूर्य का एक प्रकार हुआ, वैसे ही कुछ न करते हुए रात-दिन अनन्त कर्म करना, यह दूसरा प्रकार हुआ। संन्यास इन दोनों प्रकारों से विभूषित होता है।
दोनों असाधारण हैं। एक प्रकार में कर्म प्रकट है और अकर्मावस्था गुप्त है। दूसरे प्रकार में अकर्मावस्था प्रकट दिखायी देती है, परन्तु उसकी बदौलत अनन्त कर्म होते रहते हैं। इस अवस्था में अकर्म में कर्म लबालब भरा रहता है। इसलिए उससे प्रचंड कार्य होता है। इस अवस्था को प्राप्त मनुष्य में और आलसी में बड़ा अन्तर है। आलसी मनुष्य थकेगा, ऊबेगा। लेकिन यह अकर्मी संन्यासी कर्म शक्ति को रोक रखता है। लेशमात्र भी कर्म नहीं करता। वह हाथ-पांव से, किसी इंद्रिय से कोई कर्म नहीं करता। परन्तु कुछ न करते हुए भी वह अनन्त कर्म करता है।
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