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पांचवा अध्याय
दुहरी अकर्मावस्थाः योग और संन्यास
18. अकर्म-दशा का स्वरूप
11. अकर्म की यह ऐसी भूमिका है। साधन इतने नैसर्गिक और स्वाभाविक हो जाते हैं कि उनका आना-जाना मालूम नहीं पड़ता। इंद्रियां उनकी सहज आदी हो जाती है। सहज बोलणें हित उपदेश- 'सहज बोलना ही हित उपदेश हो जाता है।' जब ऐसी स्थिति प्राप्त हो जाती है तब कर्म अकर्म हो जाता है। ज्ञानी पुरुष के लिए सत्कर्म सहज हो जाते हैं। चहचाहते रहना पक्षियों का सहज धर्म है। मां की याद आना बच्चों का सहज धर्म है। इसी तरह ईश्वर का स्मरण होना संतों का सहज धर्म हो जाता है। सुबह होते ही ‘कुकडू-कूं’ करना मुर्गे का सहज धर्म है। स्वरों का ज्ञान कराते हुए भगवान पाणिनि ने मुर्गे की बांग का उदाहरण दिया है। पाणिनि के समय से आज तक मुर्गा सुबह बांग देता है। पर क्या इसके लिए उसे किसी ने मानपत्र अर्पित किया है ? मुर्गे का वह सहज धर्म है। उसी तरह सच बोलना, भूतमात्र के प्रति दया, किसी का दोष न देखना, सबकी सेवा-शुश्रूषा करना आदि सत्पुरुषों के कर्म सहज रूप से होते रहते हैं। उन्हें किये बिना वे जिंदा नहीं रह सकते। किसी ने भोजन किया, तो क्या हम उसका गौरव करते हैं? खाना, पीना, सोना जैसे सांसारिकों के सहज कर्म हैं, वैसे ही सेवाकर्म ज्ञानियों के लिए सहज कर्म है। उपकार करना ज्ञानी का स्वभाव हो जाता है। ज्ञानी यदि कहे कि 'मैं उपकार नहीं करूंगा' तो उसके लिए वह असंभव है। ऐसे ज्ञानी पुरुष का वह कर्म अकर्म दशा को पहुँच गया है, ऐसा समझना चाहिए। इसी दशा को ‘संन्यास’ नामक अति पवित्र पदवी दी गयी है। संन्यास ही परम धन्य अकर्म-दशा है। इस दशा को ‘कर्मयोग’ भी कहना चाहिए। कर्म करता रहता है, अतः वह ‘योग’ हैं परन्तु करते हुए भी कर रहा है ऐसा नहीं लगता, इसलिए वही ‘संन्यास है। वह कुछ ऐसी युक्ति से कर्म करता है कि उसका लेप उसे नहीं लगता, इसलिए वह ‘योग’ है; और करके भी कुछ नहीं किया, इसलिए वह ‘संन्यास’ है।
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