गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 37

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पांचवा अध्याय
दुहरी अकर्मावस्थाः योग और संन्यास
18. अकर्म-दशा का स्वरूप

11. अकर्म की यह ऐसी भूमिका है। साधन इतने नैसर्गिक और स्वाभाविक हो जाते हैं कि उनका आना-जाना मालूम नहीं पड़ता। इंद्रियां उनकी सहज आदी हो जाती है। सहज बोलणें हित उपदेश- 'सहज बोलना ही हित उपदेश हो जाता है।' जब ऐसी स्थिति प्राप्त हो जाती है तब कर्म अकर्म हो जाता है। ज्ञानी पुरुष के लिए सत्कर्म सहज हो जाते हैं। चहचाहते रहना पक्षियों का सहज धर्म है। मां की याद आना बच्चों का सहज धर्म है। इसी तरह ईश्वर का स्मरण होना संतों का सहज धर्म हो जाता है। सुबह होते ही ‘कुकडू-कूं’ करना मुर्गे का सहज धर्म है। स्वरों का ज्ञान कराते हुए भगवान पाणिनि ने मुर्गे की बांग का उदाहरण दिया है। पाणिनि के समय से आज तक मुर्गा सुबह बांग देता है। पर क्या इसके लिए उसे किसी ने मानपत्र अर्पित किया है ? मुर्गे का वह सहज धर्म है। उसी तरह सच बोलना, भूतमात्र के प्रति दया, किसी का दोष न देखना, सबकी सेवा-शुश्रूषा करना आदि सत्पुरुषों के कर्म सहज रूप से होते रहते हैं। उन्हें किये बिना वे जिंदा नहीं रह सकते। किसी ने भोजन किया, तो क्या हम उसका गौरव करते हैं? खाना, पीना, सोना जैसे सांसारिकों के सहज कर्म हैं, वैसे ही सेवाकर्म ज्ञानियों के लिए सहज कर्म है। उपकार करना ज्ञानी का स्वभाव हो जाता है। ज्ञानी यदि कहे कि 'मैं उपकार नहीं करूंगा' तो उसके लिए वह असंभव है। ऐसे ज्ञानी पुरुष का वह कर्म अकर्म दशा को पहुँच गया है, ऐसा समझना चाहिए। इसी दशा को ‘संन्यास’ नामक अति पवित्र पदवी दी गयी है। संन्यास ही परम धन्य अकर्म-दशा है। इस दशा को ‘कर्मयोग’ भी कहना चाहिए। कर्म करता रहता है, अतः वह ‘योग’ हैं परन्तु करते हुए भी कर रहा है ऐसा नहीं लगता, इसलिए वही ‘संन्यास है। वह कुछ ऐसी युक्ति से कर्म करता है कि उसका लेप उसे नहीं लगता, इसलिए वह ‘योग’ है; और करके भी कुछ नहीं किया, इसलिए वह ‘संन्यास’ है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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