गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 30

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चौथा अध्याय
कर्मयोग सहकारी साधना: विकर्म
15. उभय संयोग से अकर्म-स्फोट

9. कर्म में विकर्म उंड़ेने से अकर्म होता है, इसका अर्थ क्या? इसका अर्थ यह कि ऐसा मालूम ही नहीं होता कि कोई कर्म किया है। उस कर्म का बोझ नहीं मालूम होता। करके भी अकर्ता रहते हैं। गीता कहती है कि मारकर भी तुम मारते नहीं। मां बच्चे को पीटती है, इसलिए तुम भी उसे पीटकर देखो! तुम्हारी मार बच्चा नहीं सहेगा। मां मारती है, फिर भी वह उसके आंचल में मुंह छिपाता है, क्योंकि मां के बाह्य कर्म में चित्त-शुद्धि का मेल है। उसका यह मारना निष्काम भाव से है। उस कर्म में उसका स्वार्थ नहीं है। विकर्म के कारण, मन की शुद्धि के कारण, कर्म का कर्मत्व उड़ जाता है। राम की वह दृष्‍टि, आंतरिक विकर्म के कारण केवल प्रेम-सुधा सागर हो गयी थी; परन्तु राम को उस कर्म का कोई श्रम नहीं था। चित्त शृद्धि से किया हुआ कर्म निर्लेप रहता है। उसका पाप-पुण्य बाकी नहीं रहता। नहीं तो कर्म का कितना बोझ, कितना जोर, हमारी बुद्धि और हृदय पर पड़ता है। यदि ऐसी खबर अभी दो बजे आये कि कल सारे राजनैतिक कैदी छूटनेवाले हैं, तो फिर देखो, कैसी हलचल मच जाती है। चारों ओर धूमधाम शुरू हो जायेगी। हम कर्म के अच्छे-बुरे होने की वजह से व्यग्र रहते हैं। कर्म हमें चारों ओर से घेर लेता है, मानो कर्म ने हमारी गर्दन धर दबायी है। जिस तरह समुद्र का प्रवाह जोर से जमीन में धंसकर खाड़ियां बना देता है, उसी तरह कर्म का यह जंजाल चित्त में घुसकर क्षोभ पैदा कर देता है। सुख-दुख के द्वंद्व निर्माण होते हैं। सारी शांति नष्ट हो जाती है। कर्म हुआ और होकर चला भी गया; परन्तु उसका वेग बाकी बचा ही रहता है। कर्म चित्त पर हावी हो जाता है। फिर उसकी नींद हराम हो जाती है।

परन्तु ऐसे इस कर्म में यदि विकर्म को मिला दें; तो फिर चाहे जितने कर्म करें, उनका श्रम नहीं मालूम होता। मन ध्रुव की तरह शांत, स्थिर और तेजोमय बना रहता है। कर्म में विकर्म डाल देने से वह अकर्म हो जाता है, मानो कर्म करके फिर उसे पोंछ दिया हो।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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