गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 3

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पहला अध्याय
प्रास्ताविक आख्यायिका: अर्जुन का विषाद
2. अर्जुन की भूमिका का संबंध

6. कुछ लोगों का ख़्याल है कि गीता का आरंभ दूसरे अध्याय से समझना चाहिये। दूसरे अध्याय के ग्यारहवें श्लोक से प्रत्यक्ष उपदेश का आरंभ क्यों न समझा जाये? एक व्यक्ति ने मुझसे कहा- "भगवान ने अक्षरों में 'अकार' को ईश्वरीय विभूति बताया है। इधर अशोच्यानन्व्शोचस्त्वम् के आरंभ में अनायास 'अकार' आ गया है। अत: वहीं से आरंभ मान लेना चाहिये।" इस दलील को हम छोड़ दें तो भी इसमें शंका नहीं है कि वहाँ से आरंभ मानना अनेक दृष्टियों से उचित ही है। फिर भी उससे पहले के प्रास्ताविक भाग का भी महत्त्व है ही। अर्जुन किस भूमिका पर स्थित है, किस बात का प्रतिवादन करने के लिए गीता की प्रवृत्ति हुई है, यह इस प्रस्तावित कथा भाग के बिना अच्छी तरह समझ में नहीं आ सकता।

7. कुछ लोग कहते हैं कि अर्जुन का क्लैब्य (भय) दूर करके उसे युद्ध में प्रवृत करने के लिये गीता कही गयी है। उनके मत में गीता केवल कर्मयोग ही नहीं बताती, बल्कि युद्ध-योग का भी प्रतिपादन करती है। पर ज़रा विचार करने से इस कथन की भूल हमें दीख पड़ेगी। अठारह अक्षौहिणी सेना लड़ने के लिये तैयार थी। तो क्या हम यह कहेंगे कि सारी गीता सुनाकर भगवान ने अर्जुन को उस सेना की योग्यता का बनाया? अर्जुन धबड़ाया, न कि वह सेना? तो क्या सेना की योग्यता अर्जुन से अधिक थी? यह बात कल्पना में भी नहीं आ सकती। अर्जुन, जो लड़ाई से परावृत हो रहा था, सो भय के कारण नहीं। सैकड़ों लड़ाइयों में अपना जौहर दिखाने वाला वह 'महावीर' था। उत्तर-गो-ग्रहण के समय उसने अकले ही भीष्म, द्रोण और कर्ण के दांत खट्टे कर दिये थे। सदा विजय प्राप्त करने वाला और सब नरों में एक ही सच्चा नर, ऐसी उसकी ख्याति थी। वीरवृत्ति उसके रोम-रोम में भरी थी। अर्जुन को उकसाने के लिये, उत्तेजित करने के लिये 'क्लैब्य' का आरोप तो कृष्ण ने भी करके देख लिया, परंतु उनका वह तीर बेकार गया और फिर उन्हें दूसरे ही मुद्दों को लेकर ज्ञान-विज्ञान-संबंधी व्याख्यान देने पड़े। तो यह निश्चित है कि महज क्लैब्य- निरसन जैसा सरल तात्पर्य गीता का नही है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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