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चौथा अध्याय
कर्मयोग सहकारी साधना: विकर्म
15. उभय संयोग से अकर्म-स्फोट
6. कर्म के साथ जब आंतरिक भाव का मेल हो जाता है तो वह कर्म कुछ निराला ही हो जाता है। तेल और बाती के साथ जब ज्योति का मेल होता है, तब प्रकाश उत्पन्न होता है। कर्म के साथ विकर्म का मेल हुआ कि निष्कामता आती है। बारूद में बत्ती लगाने से धड़ाका होता है। उस बारूद में एक शक्ति उत्पन्न होती है। कर्म बंदूक की बारूद की तरह है। उसमें विकर्म की बत्ती लगी कि काम बना। जब तक विकर्म आकर नहीं मिलता, तब तक वह कर्म जड़ है। उसमें चैतन्य नहीं। एक बार जहाँ विकर्म की चिंगारी उसमें गिरी कि फिर उस कर्म में जो सामर्थ्य पैदा होता है, वह अवर्णनीय है। चिमटी भर बारूद जेब में पडी रहती है, हाथ में उछलती रहती है, पर जहाँ उसमें बत्ती लगी कि शरीर की धज्जियां उड़ी। स्वधर्माचरण का अनन्त सामर्थ्य इसी तरह गुप्त रहता है। उसमें विकर्म को जोड़िए, फिर देखिए क्या चमत्कार होते हैं! उसके स्फोट से अहंकार, काम, क्रोध भस्म हो जायेंगे और उसमें से उस परम ज्ञान की निष्पत्ति होगी।
7. कर्म ज्ञान का ईंधन है। लकड़ी का बड़ा-सा कुंदा कहीं पड़ा हो, उसे आप जलाइये। वह अंगार हो जाता है। उस लकड़ी और उस आग में कितना अंतर है परंतु उस लकड़ी की ही वह आग होती है। कर्म में विकर्म डाल देने से कर्म दिव्य दिखायी देने लगता है। मां बच्चे की पीठ पर हाथ फेरती है। एक पीठ है, जिस पर हाथ यों ही इधर-उधर फिर गया। परन्तु इस एक मामूली कर्म से उन मां-बेटे के मन में जो भावनाएं उठीं, उनका वर्णन कौन कर सकेगा? यदि कोई ऐसा समीकरण बिठाने लगे कि इतनी लंबी-चौड़ी पीठ पर इतने वजन का एक मुलायम हाथ घुमाने से वह आनंद उत्पन्न होगा; तो वह एक मजाक ही होगा। हाथ फिराने की वह नगण्य क्रिया, परन्तु उसमें मां का हृदय उंड़ेला हुआ है। विकर्म उंड़ेला हुआ है, इसी से यह अपूर्व आनन्द प्राप्त होता है। तुलसी-रामायण में एक प्रसंग है। राक्षसों से लड़कर बंदर आते है। वे जख्मी हो गये हैं। बदन से खून टपक रहा है। परन्तु प्रभु रामचन्द्र के एक बार प्रेमपूर्वक दृष्टिगत करने भर से उन बंदरों की वेदना मिट जाती है- राम कृपा कर चितवा सबही। भए बिगतश्रम बानर तबही॥ अब यदि किसी दूसरे मनुष्य ने, राम की उस समय आंख कितनी खुली थी, इसका फोटो लेकर किसी की ओर उसी प्रकार देखा होता, तो क्या उसका वैसा प्रभाव पड़ा होता? वैसा करने का यत्न हास्यास्पद है।
8. कर्म के साथ जब विकर्म का जोड़ मिल जाता है, तो शक्ति स्फोट होता है। और उसमें से ‘अकर्म’ निमार्ण होता है। लकड़ी जलने पर राख हो जाती है। पहले का वह इतना बड़ा लकड़ी का कुंदा, अंत में चिमटी पर बेचारी राख रह जाती है उसकी! खुशी से उसे हाथ में लीजिए और सारे बदन पर मलिए। इस तरह कर्म में विकर्म ज्योति लगाने से अंत में अकर्म हो जाता है। कहाँ लकड़ी और कहाँ राख! कः केन संबंधः! उनके गुण-धर्मों में अब बिलकुल साम्य नहीं रह गया। परन्तु इसमें कोई शक नहीं है कि वह राख उस लकड़ी के कुंदे की ही है।
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