गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 28

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चौथा अध्याय
कर्मयोग सहकारी साधना: विकर्म
15. उभय संयोग से अकर्म-स्फोट


4. कर्म के साथ मन का मेल जरूरी है। मन के इस मेल को ही गीता ‘विकर्म’ कहती है। बाहर का स्वर्धरूप सामान्य कर्म और यह आंतरिक विशेष कर्म। यह विशेष कर्म अपनी-अपनी मानसिक आवश्यकता के अनुसार भिन्न-भिन्न होता है। विकर्म के ऐसे अनेक प्रकार, नमूने के तौर पर, चौथे अध्याय में बताये गये हैं। उसी का विस्तार आगे छठे अध्याय से किया गया है। इस विशेष कर्म का, इस मानसिक अनुसंधान का योग जब हम करेंगे, तभी उसमें निष्कामता की ज्योति जलेगी। कर्म के साथ जब विकर्म मिलता है, तब फिर धीरे-धीरे निष्कामता हमारे अन्दर आती है। यदि शरीर और मन भिन्न-भिन्न वस्तुएं हैं, तो साधन भी दोनों के लिए भिन्न-भिन्न ही होंगे। जब इन दोनों का मेल बैठ जाता है, तो साध्य हमारे हाथ लग जाता है। मन एक तरफ और शरीर दूसरी तरफ, ऐसा न हो जाये, इसलिए शास्त्रकारों ने दुहरा मार्ग बताया है। भक्तियोग में बाहर से तप और भीतर से जप बताया है। उपवास आदि बाहरी तप के चलते हुए यदि भीतर से मानसिक जप न हो, तो वह सारा तप व्यर्थ चला जाता है। जिस भावना से मैं तप कर रहा हूँ, वह भावना अन्दर सतत जलती रहनी चाहिए। ‘उपवास’ शब्द का अर्थ ही है, भगवान के पास बैठना। परमात्मा के नजदीक हमारा चित्त रहे, इसके लिए बाहरी भोगों का दवाजा बंद करने की जरूरत है। परन्तु बाहर से विषय भोगों को छोड़कर यदि मन में भगवान का चिंतन न किया जाये, तो फिर इस बाहरी उपवास की क्या कीमत रही? ईश्वर का चिंतन न करते हुए यदि उस समय खाने-पीने की चीजों का ही चिंतन करते रहें, तो फिर वह बड़ा भयंकर भोजन हो जायेगा। यह जो मानसिक भोजन, मन में विषयों का चिन्तन, उससे बढ़कर भयंकर वस्तु दूसरी नहीं। तंत्र के साथ मंत्र होना चाहिए। केवल बाह्य तंत्र का कोई महत्त्व नहीं। केवल कर्महीन मंत्र का भी कोई महत्त्व नहीं। हाथ में भी सेवा हो और हृदय में भी सेवा हो, तभी सच्ची सेवा हमारे हाथों बन पड़ेगी।

5. यदि बाह्य कर्म में हृदय की आर्द्रता न रही, तो वह स्वधर्माचरण सूखा रह जायेगा। उसमें निष्कामतारूपी फूल-फल नहीं लगेंगे। मान लो, हमने किसी रोगी की सेवा-शुश्रूषा शुरू की, परन्तु उस सेवा-कर्म के साथ यदि मन में दयाभाव न हो, तो वह रुग्ण-सेवा नीरस मालूम होगी और उससे जी ऊब उठेगा। वह एक बोझ होगी। रोगी को भी वह सेवा एक बोझ मालूम पड़ेगी। उस सेवा में यदि मन का सहयोग न हो, तो उससे अहंकार पैदा होगा। ‘मैं आज उसके काम आया हूँ, तो उसे भी मेरे काम आना चाहिए। उसे मेरी तारीफ करनी चाहिए। लोगों को मेरा गौरव करना चाहिए‘- आदि अपेक्षाएं मन में उत्पन्न होंगी। अथवा हम त्रस्त होकर कहेंगे- "हम इसकी सेवा करते हैं, फिर भी यह बड़बड़ाता रहता है।" बीमार आदमी वैसे ही चिड़चिड़ा हो जाता है। उसके ऐसे स्वभाव से वह सेवक, जिसके मन में सच्चा सेवा-भाव नहीं होगा, ऊब जायेगा।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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