चौथा अध्याय
कर्मयोग सहकारी साधना: विकर्म
14. कर्म को विकर्म का योग चाहिए
3. ‘निष्काम कर्म ‘इस शब्द-प्रयोग में ‘कर्म’ पद की अपेक्षा ‘निष्काम’ पद को ही अधिक महत्त्व है, जिस तरह ‘अहिंसात्मक असहयोग’ शब्द प्रयोग में असहयोग इस शब्द से ‘अहिंसात्मक’ इस विशेषण को अधिक महत्त्व है। अहिंसा को दूर हटाकर यदि केवल असहयोग का अवलंबन करेंगे, तो वह एक भयंकर चीज बन सकती है। उसी तरह स्वधर्माचरण रूपी कर्म करते हुए यदि मन का विकर्म उसमें नहीं जुड़ा है, तो उसमें खतरा है।
आज जो लोग सार्वजनिक सेवा करते हैं, वे स्वधर्म का ही आचरण करते हैं। जब लोग गरीब और दुःखी होते हैं। तब उनकी सेवा करके उन्हें सुखी बनाना प्रवाह-प्राप्त धर्म है। परन्तु इससे यह अनुमान नहीं कर लेना चाहिए कि जितने लोग सार्वजनिक सेवा करते हैं, वे सब कर्मयोगी हो गये हैं। लोक-सेवा करते हुए यदि मन में शुद्ध भावना न हो, तो वह लोक-सेवा भयानक होने की संभावना है। अपने कुटुंब की सेवा करते हुए जितना अहंकार, जितना द्वेष-मत्सर, जितना स्वार्थ आदि हम उत्पन्न करते हैं, उतना सब लोक- सेवा में भी हम उत्पन्न करेंगे और इसका प्रत्यक्ष दर्शन हमें आजकल के लोक-सेवकों के जमघट में दिखायी भी दे रहा है।
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