गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 27

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चौथा अध्याय
कर्मयोग सहकारी साधना: विकर्म
14. कर्म को विकर्म का योग चाहिए

3. ‘निष्काम कर्म ‘इस शब्द-प्रयोग में ‘कर्म’ पद की अपेक्षा ‘निष्काम’ पद को ही अधिक महत्त्व है, जिस तरह ‘अहिंसात्मक असहयोग’ शब्द प्रयोग में असहयोग इस शब्द से ‘अहिंसात्मक’ इस विशेषण को अधिक महत्त्व है। अहिंसा को दूर हटाकर यदि केवल असहयोग का अवलंबन करेंगे, तो वह एक भयंकर चीज बन सकती है। उसी तरह स्वधर्माचरण रूपी कर्म करते हुए यदि मन का विकर्म उसमें नहीं जुड़ा है, तो उसमें खतरा है।

आज जो लोग सार्वजनिक सेवा करते हैं, वे स्वधर्म का ही आचरण करते हैं। जब लोग गरीब और दुःखी होते हैं। तब उनकी सेवा करके उन्हें सुखी बनाना प्रवाह-प्राप्त धर्म है। परन्तु इससे यह अनुमान नहीं कर लेना चाहिए कि जितने लोग सार्वजनिक सेवा करते हैं, वे सब कर्मयोगी हो गये हैं। लोक-सेवा करते हुए यदि मन में शुद्ध भावना न हो, तो वह लोक-सेवा भयानक होने की संभावना है। अपने कुटुंब की सेवा करते हुए जितना अहंकार, जितना द्वेष-मत्सर, जितना स्वार्थ आदि हम उत्पन्न करते हैं, उतना सब लोक- सेवा में भी हम उत्पन्न करेंगे और इसका प्रत्यक्ष दर्शन हमें आजकल के लोक-सेवकों के जमघट में दिखायी भी दे रहा है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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