गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 236

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साम्यसूत्र-वृत्तिः
अध्याय 5
(17) कर्ममातृकमकर्म - 6

1. गृहे वने संसारः समानः
2. राक्षसवत् यथेष्टाकारः
3. तज्जयाय विकर्मापेक्षा
4. कर्मणोप्युपकारः
5. गुहासीनस्य चित्तं क्षीणम्
6. अकर्मदर्शनमुभयसंयोगेन

(18) द्विरूपं तु - 5

7. अक्लांतमेकम्
8. स्वेनाज्ञातम
9. अगणितम्
10. प्रेरकमपरम्
11. सहजधर्मरूपम्

(19) व्यक्तलिंगमेकम् - 3

12. अकरणमपि कर्मप्रकारः
13. सुवर्णमंजूषान्यायेन
14. कर्मसातत्ये नैष्कर्म्यम

(20) अव्यक्तलिंगमपरम् - 2

15. संन्यासो गूढ़शक्तिः
16. आसीनो दूरं व्रजति

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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