अठारहवां अध्याय
उपसंहार
फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद
107. सिद्ध पुरुष की तिहरी भूमिका
26. इस अंतिम अवस्था में तीन भाव रहते हैं- एक है वामदेव की दशा। उनका वह प्रसिद्ध उद्गार है न- ‘इस विश्व में जो कुछ भी है, वह मैं हूँ।’ ज्ञानी पुरुष निरहंकार हो जाता है। उसका देहाभिमान नष्ट हो जाता है, क्रियामात्र समाप्त हो जाती है। इस समय उसे एक भावावस्था प्राप्त होती है। वह अवस्था एक देह में समा नहीं सकती। भावावस्था क्रियावस्था नहीं है। भावावस्था का अर्थ है- भावना की उत्कटता की अवस्था। अल्प मात्रा में इस भावावस्था का अर्थ है- भावना की उत्कटता की अवस्था। अल्प अवस्था में इस भावावस्था का अनुभव हम सबको हो सकता है। बालक के दोष से माता दोषी होती है। गुणों से गुणी होती है। उसके दुःख से दुःखी और सुख से सुखी होती है। मां की यह भावावस्था संतान तक सीमित है। संतान के दोषों को खुद न करके भी वह अपने दोष मान लेती है। ज्ञानी पुरुष भी भावना की उत्कटता से सारे संसार के दोष अपने मान लेता है। वह त्रिभुवन के पाप-पुण्य से पुण्यवान बनता है और ऐसा होने पर भी त्रिभुवन के पाप-पुण्य से वह लेशमात्र भी स्पर्शित नहीं होता। 27. रुद्र-सूक्त में ऋषि कहते हैं- यवाश्च में तिलाश्च में गोधूमाश्च मे- मुझे जौ दे, तिल दे, गेहूँ दे। इस तरह मांगते ही रहने वाले ऋषि का पेट आखिर कितना बड़ा होगा? लेकिन वह मांगने वाला साढ़े तीन हाथ के शरीर का नहीं है। उसकी आत्मा विश्वाकार होकर बोलती है। इसे मैं ‘वैदिक विश्वात्म भाव’ कहता हूँ। वेदों में इस भावना का परमोत्कर्ष दिखायी देता है। 28. गुजराती संत नरसी मेहता कीर्तन करते हुए कहते हैं- बापजी पाप में कवण कीधां हशे, नाम लेतां तारूं निद्रा आवे- ‘हे ईश्वर, मैंने ऐसे कौन से पाप किये हैं, जो कीर्तन के समय मुझे नींद आती है!‘ नींद क्या नरसी मेहता को आ रही थी? नींद तो श्रोताओं को आ रही थी। परंतु श्रोताओं से एकरूप होकर नरसी मेहता पूछ रहे हैं। यह उनकी भावावस्था है। ज्ञानी पुरुष की ऐसी यह भावावस्था होती है। इस भावावस्था में सभी पाप-पुण्य उसके द्वारा होते हुए आपको दिखायी देंगे। वह स्वयं भी यही कहेगा। वह ऋषि कहता है न- ‘न करने योग्य कितने ही कार्य मैंने किये हैं, करता हूँ और करूंगा।’ यह भावावस्था प्राप्त होने पर आत्मा पक्षी की तरह उड़ने लगता है। वह पार्थिवता के परे चला जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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