गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 222

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अठारहवां अध्याय
उपसंहार
फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद
104. साधक के लिए स्वधर्म का खुलासा

13. सारांश यह कि तामस और राजस कर्म तो बिलकुल छोड़ देने चाहिए और सात्त्विक कर्म करने चाहिए। इसके साथ ही यह विवेक रखना चाहिए कि जो सात्त्विक कर्म सहज और स्वाभाविक रूप से सामने आ जायें, वे सदोष होते हुए भी त्याज्य नहीं हैं। दोष होता है तो होने दो। उस दोष से पीछा छुड़ाना चाहोगे, तो दूसरे असंख्य दोष पल्ले आ पड़ेंगे। अपनी नकटी नाक जैसी है, वैसी ही रहने दो। उसे काटकर सुंदर बनाने की कोशिश करोगे, तो वह और भी भयानक तथा भद्दी दीखेगी। वह जैसी है, वैसी ही अच्छी है। सात्त्विक कर्म सदोष होने पर भी स्वाभाविक रूप से प्राप्त होने के कारण नहीं छोड़ने चाहिए। उन्हें करना है, लेकिन उनका फल छोड़ना है।

14. और एक बात कहनी है। जो कर्म सहज प्रवाह से प्राप्त न हुए हों, उनके बारे में तुम्हें कितना ही लगता हो कि वे अच्छी तरह किये जा सकते हैं, तो भी उन्हें मत करो। उतने ही कर्म करो, जितने सहज रूप से प्राप्त हों। उखाड़-पछाड़ और दौड़-धूप करके दूसरे नये कर्मों का भार मत उठा लो। जिन कर्मों को खास तौर पर जोड़-तोड़ करके ही करना पड़ता हो, वे कितने ही अच्छे क्यों न हों, उनसे दूर रहो। उनका मोह मत करो। जो कर्म सहज प्राप्त हैं, उन्हीं के बारे में फल-त्याग संभव है। यदि मनुष्य इस लोभ से कि यह कर्म भी अच्छा है और वह कर्म भी अच्छा है, चारों ओर दौड़ने लगे, तो फिर कैसा फल-त्याग? उससे तो जीवन सारा बरबाद हो जायेगा। फल की आशा से ही वह इन परधर्म रूपी कर्मों को करना चाहेगा और फल भी हाथ से खो बैठेगा। जीवन में कहीं भी स्थिरता प्राप्त नहीं होगी। चित्त पर उस कर्म की आसक्ति चिपक जायेगी। अगर सात्त्विक कर्मों का भी लोभ होने लगे, तो वह लोभ भी दूर करना चाहिए। उन नाना प्रकार के सात्त्विक कर्मों को यदि करना चाहोगे, तो उसमें भी राजसता और तामसता आ जायेगी। इसलिए तुम वही करो, जो तुम्हारा सात्त्विक, प्रवाह प्राप्त स्वधर्म है।

15. स्वधर्म में स्वदेशी धर्म, स्वजातीय धर्म और स्वकालीन धर्म का समावेश होता है। इन तीनों के योग से स्वधर्म बनता है। मेरी वृत्ति के अनुकूल और अनुरूप क्या है और कौन-सा कर्तव्य मुझे प्राप्त हुआ है, यह सब स्वधर्म निश्चित करते समय देखना ही होता है, तुममें ‘तुमपन’ जैसी कोई चीज है और इसलिए तुम ‘तुम’ हो। प्रत्येक व्यक्ति में उसकी अपनी कुछ विशेषता होती है। बकरी का विकास बकरी बने रहने में ही है। बकरी रहकर ही उसे अपना विकास कर लेना चाहिए। बकरी अगर गाय बनना चाहे, तो वह उसके लिए संभव नहीं। वह स्वयं प्राप्त बकरीपन का त्याग नहीं कर सकती। इसके लिए उसे शरीर छोड़ना पड़ेगा। नया धर्म और नया जन्म ग्रहण करना होगा, परंतु इस जन्म में तो उसके लिए बकरीपन ही पवित्र है। बैल और मेंढक की कहानी है न? मेंढकी के बढ़ने की एक सीमा है। वह बैल जितनी होने का प्रयत्न करेगी, तो मर जायेगी। दूसरे के रूप की नकल करना ठीक नहीं होता। इसलिए पर धर्म को ‘भयावह’ कहा गया है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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