गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 220

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अठारहवां अध्याय
उपसंहार
फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद
103. क्रिया से छूटने की सच्ची रीति

9. एक आदमी था। उसे अपना घर अमंगल प्रतीत होने लगा। तो वह किसी गांव में चला गया। वहाँ उसे गंदगी दिखायी दी, तो जंगल में चला गया। जंगल में एक आम के पेड़ के नीचे बैठा ही था कि एक पक्षी ने उसके सिर पर बीट कर दी। 'यह जंगल भी अमंगल है’- ऐसा कहकर वह नदी में जा खड़ा हुआ। नदी में उसने देखा कि बड़ी मछलियां छोटी मछलियों को खा रही हैं, तब तो उसे बड़ी घिन लगी। ‘अरे, यह तो सारी सृष्टि ही अमंगल है। यहाँ मरे बिना छुटकारा नहीं’, ऐसा सोचकर वह पानी से बाहर आया और आग जलायी। उधर से एक सज्जन आये और बोले- ‘भाई, यह मरने की तैयारी क्यों?‘ ‘यह संसार अमंगल, है, इसलिए!‘- वह बोला। उस सज्जन ने उत्तर दिया- ‘तेरा यह गंदा शरीर, यह चरबी यहाँ जलने लगेगी, तो यहाँ कितनी बदबू फैलेगी। हम यहाँ पास ही रहते हैं। तब हम कहाँ जायेंगे? एक बाल के जलने से ही कितनी दुर्गंध आती है! फिर तेरी तो सारी चरबी जलेगी! कितनी दुर्गंध फैलेगी, इसका भी तो कुछ विचार कर।’ वह आदमी परेशान होकर बोला- ‘इस दुनिया में न जीने की सुविधा है और न मरने की ही, तो अब करूं क्या?’

10. तात्पर्य यह कि ‘अमंगल-अमंगल’- ऐसा कहकर सबका बहिष्कार करेंगे, तो काम नहीं चलेगा। यदि तुम छोटे कर्मों से बचना चाहोगे, तो दूसरे बड़े कर्म सिर पर सवार हो जायेंगे। कर्म स्वरूपतः, बाहर से छोड़ने पर नहीं छूटते हैं। जो कर्म सहज रूप से प्रवाह-प्राप्त हैं, उनका विरोध करने में अगर कोई अपनी शक्ति खर्च करेगा, प्रवाह के विरुद्ध जाना चाहेगा, तो अंत में वह थककर प्रवाह के साथ बह जायेगा। प्रहवाहानुकूल क्रिया के द्वारा ही उसे अपने तरने का उपाय सोचना चाहिए। इससे मन पर का लेप कम होगा और चित्त शुद्ध होता जायेगा। फिर धीरे-धीरे क्रिया अपने-आप झड़ती जायेगी। कर्म-त्याग न होते हुए भी क्रियाएं लुप्त हो जायेंगी। कर्म छूटेगा ही नहीं। क्रिया लुप्त हो जायेगी।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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