अठारहवां अध्याय
उपसंहार
फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद
103. क्रिया से छूटने की सच्ची रीति
7. अब यह प्रश्न होता है कि यदि सब क्रियाओं मे दोष हैं, तो फिर सब क्रियाओं को छोड़ ही क्यों न दें? इसका उत्तर पहले एक बार दिया जा चुका है। सब कर्मों का त्याग करने की कल्पना बड़ी सुंदर है। यह विचार मोहक है। पर यह असंख्य कर्म आखिर छोड़े कैसे? राजस और तामस कर्मों को छोड़ने की जो रीति है, क्या वही सात्त्विक कर्मों के लिए उपयुक्त होगी? जो दोषमय सात्त्विक कर्म हैं, उन्हें कैसे टालें? मजा तो यह है कि इंद्राय तक्षकाय स्वाहा- की तरह जब मनुष्य संसार में करने लगता है तब अमर होने के कारण इंद्र तो मरता ही नहीं, बल्कि तक्षक भी न मरते हुए उल्टा मजबूत हो बैठता है। सात्त्विक कर्मों में पुण्य है और थोड़ा दोष है। परंतु थोड़ा दोष होने के कारण यदि उस दोष के साथ पुण्य की भी आहुति देना चाहोगे, तो मजबूत होने के कारण पुण्य-क्रिया तो नष्ट ही होगी, उल्टे दोष-क्रिया अवश्य ही बढ़ती चली जायेगी। ऐसे मिश्रित, विवेकहीन त्याग से पुण्यरूप इंद्र तो मरता ही नहीं, पर मर सकने वाला दोष रूप तक्षक भी नहीं मरता। इसलिए उसके त्याग की रीति कौन-सी? बिल्ली हिंसा करती है, इसलिए उसका त्याग करेंगे, तो चूहे हिंसा करने लगेंगे। सांप हिंसा करते हैं, इसलिए अगर उन्हें दूर किया, तो सैकड़ों जंतु खेती नष्ट कर डालेंगे। खेती का अनाज नष्ट होने से हजारों मनुष्य मर जायेंगे। इसलिए त्याग विवेकयुक्त होना चाहिए। 8. गोरखनाथ से मच्छींद्रनाथ ने कहा- ‘इस लड़के को धो लाओ!‘ गोरखनाथ ने लड़के के पैर पकड उसे शिला पर अच्छी तरह पछाड़ा और बाड़ पर सुखाने डाल दिया। मच्छींद्रनाथ ने पूछा- ‘लड़के को धो लाये,‘ गोरखनाथ ने उत्तर दिया- ‘हां, उसे धो-धोकर सुखाने डाल दिया है!‘ लड़के को क्या इस तरह धोया जाता है? कपड़े और मनुष्य धोने का ढंग एक-सा नहीं है। इन दोनों ढंगों में बड़ा अंतर है। इसी तरह राजस-तामस कर्मों के त्याग तथा सात्त्विक कर्म के त्याग में बड़ा अंतर है। सात्त्विक कर्म छोड़ने की रीति दूसरी है। विवेकहीन होकर कर्म करने से तो कुछ उलट-पुलट ही हो जायेगा। तुकाराम ने कहाः त्यागें भोग माइया येतील अंतरा। मग मी दातारा काय करूं- ‘त्याग से जो भीतर भोग उगे, तब हे दाता! मैं क्या करूं?’ छोटा त्याग करने जाते हैं, तो बड़ा भोग आकर छाती पर बैठ जाता है। इसलिए वह अल्प-सा त्याग भी मिथ्या हो जाता है। छोटे से त्यागी की पूर्ति के लिए बड़े-बड़े इंद्रभवन खड़े करते हैं। इससे तो वह झोंपड़ी ही अच्छी थी। वही पर्याप्त थी। लंगोटी लगाकर आस-पास वैभव इकट्ठा करने से तो कुरता और बंडी ही अच्छी। इसीलिए भगवान सात्त्विक कर्मों के त्याग की पद्धति ही अलग बतायी है। वे सभी सात्त्विक कर्म तो करने हैं, लेकिन उनके फलों को तोड़ फेंकना है। कुछ कर्म तो समूल त्याज्य हैं और कुछ के सिर्फ फल ही छोड़ने होते हैं। शरीर पर कोई ऐसा-वैसा दाग पड़ जाये, तो उसको धोकर मिटाया जा सकता है, पर चमड़ी का रंग ही काला है, तो उस पर पुताई करने से क्या लाभ? यह काला रंग ज्यों-का-त्यों रहने दो। उसकी तरफ देखते ही क्यों को? उसे अमंगल मत कहो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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