गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 218

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सत्रहवां अध्याय
उपसंहार
फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद
102. फल-त्याग सार्वभौम कसौटी

5. राजस और तामस कर्म त्याज्य क्यों है? इसलिए कि वे शुद्ध नहीं है। शुद्ध न होने से उन कर्मों का कर्ता के चित्त पर संस्कार पड़ता है, परंतु अधिक विचार करने पर पता चलता है कि सात्त्विक कर्म भी सदोष होते हैं। जितने भी कर्म है, उन सबसे कुछ-न-कुछ दोष है ही। खेती का स्वधर्म ही लो। यह एक शुद्ध सात्त्विक क्रिया है, लेकिन इस यज्ञ रूप खेती में भी हिंसा तो होती ही है। हल जोतने आदि में कितने ही जीव-जंतु मरते हैं। सबेरे दरवाजा खोलते ही सूर्य का प्रकाश घर में प्रवेश करता है, उससे असंख्य जंतु नष्ट हो जाते हैं। जिसे ‘शुद्धीकरण’ कहते हैं, वह भी मारण-क्रिया ही हो जाती है। सारांश, जब सात्त्विक स्वधर्म रूप कर्म भी सदोष हो जाता है, तब क्या करें?

6. मैं पहले ही कह चुका हूँ कि सब गुणों का विकास होना तो अभी बाकी है। हमें ज्ञान, भक्ति, सेवा, अहिंसा- इनके बिंदुमात्र का ही अभी अनुभव है। सारा-का-सारा अनुभव हो चुका है। ऐसी बात नहीं है। संसार अनुभव लेकर आगे बढ़ता जाता है। मध्ययुग में एक ऐसी कल्पना चली कि खेती में हिंसा होती है, इसलिए अहिंसक व्यक्ति खेती न करे। वह व्यापार करे। अन्न उपजाना पाप है, पर कहते थे कि अन्न बेचना पाप नहीं। लेकिन इस तरह क्रिया को टालने से हित नहीं हो सकता। यदि मनुष्य इस तरह कर्म-संकोच करता चला जाये, तो अंत में आत्मनाश ही होगा। मनुष्य कर्म से छूटने का ज्यों-ज्यों विचार करेगा, त्यों-त्यों कर्म का अधिक विस्तार होता जायेगा। आपके इस धान्य के व्यापार के लिए क्या किसी को खेती नहीं करनी पड़ेगी? तब क्या उस खेती से होने वाली हिंसा के आप हिस्सेदार नहीं होंगे? अगर कपास उपजाना पाप है, तो उस उपजी हुई कपास को बेचना भी पाप है। कपास पैदा करने में दोष है, इसलिए उस कर्म को ही छोड़ देना बुद्धि-दोष होगा। अब कर्मों का बहिष्कार करना- यही कर्म नहीं, वह कर्म नहीं, कुछ मत करो, इस प्रकार देखने वाली दृष्टि में, कहना होगा कि सच्चा दयाभाव शेष नहीं रहा, बल्कि वह मर गया। पत्ते नोचने से पेड़ नहीं मरता, वह तो उल्टा पल्लवित होता है। क्रिया का संकोच करने में आत्म-संकोच ही है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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