गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 212

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सत्रहवां अध्याय
परिशिष्ट-2
साधक का कार्यक्रम
98. अविरोधी जीवन की गीता की योजना

22. जीभ और पेट में क्या विरोध है? पेट को जितना अन्न चाहिए, उतना ही जीभ को देना चाहिए। पेट ने ‘बस’ कहा कि जीभ को देना बंद कर देना चाहिए। पेट एक संस्था है, तो जीभ दूसरी संस्था। मैं इन संस्थाओं का सम्राट हूँ। इन सब संस्थाओं में अद्वैत ही है। कहाँ से ले आये यह अभागा विरोध? जिस प्रकार एक ही देह की इन संस्थाओं में वास्तविक विरोध नहीं है, बल्कि सहयोग है, उसी प्रकार समाज में भी है। समाज में इस सहयोग को बढ़ाने के लिए ही गीता चित्त शुद्धिपूर्वक यज्ञ-दान-तप की क्रिया का विधान बताती है। ऐसे कर्मों से व्यक्ति और समाज, दोनों का कल्याण होगा।

जिसका जीवन यज्ञमय है, वह सबका हो जाता है। प्रत्येक पुत्र को ऐसा मालूम होता है कि मां का प्रेम मुझ पर है। उसी प्रकार यह व्यक्ति सबको अपना मालूम होता है। सारी दुनिया को वह प्रिय और अपना लगता है। सभी को ऐसा मालूम होता है कि वह हमारा प्राण है, मित्र है, सखा है। ऐसा पुरुष तो पहावा। जनांस वाटे हा असावा॥ ‘ऐसे पुरुष का दर्शन करें, लोग उसे अनन्य रूप से चाहते हैं'- ऐसा समर्थ रामदास ने कहा है। ऐसा जीवन बनाने की युक्ति गीता ने बतायी है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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