सत्रहवां अध्याय
परिशिष्ट-2
साधक का कार्यक्रम
98. अविरोधी जीवन की गीता की योजना
22. जीभ और पेट में क्या विरोध है? पेट को जितना अन्न चाहिए, उतना ही जीभ को देना चाहिए। पेट ने ‘बस’ कहा कि जीभ को देना बंद कर देना चाहिए। पेट एक संस्था है, तो जीभ दूसरी संस्था। मैं इन संस्थाओं का सम्राट हूँ। इन सब संस्थाओं में अद्वैत ही है। कहाँ से ले आये यह अभागा विरोध? जिस प्रकार एक ही देह की इन संस्थाओं में वास्तविक विरोध नहीं है, बल्कि सहयोग है, उसी प्रकार समाज में भी है। समाज में इस सहयोग को बढ़ाने के लिए ही गीता चित्त शुद्धिपूर्वक यज्ञ-दान-तप की क्रिया का विधान बताती है। ऐसे कर्मों से व्यक्ति और समाज, दोनों का कल्याण होगा। जिसका जीवन यज्ञमय है, वह सबका हो जाता है। प्रत्येक पुत्र को ऐसा मालूम होता है कि मां का प्रेम मुझ पर है। उसी प्रकार यह व्यक्ति सबको अपना मालूम होता है। सारी दुनिया को वह प्रिय और अपना लगता है। सभी को ऐसा मालूम होता है कि वह हमारा प्राण है, मित्र है, सखा है। ऐसा पुरुष तो पहावा। जनांस वाटे हा असावा॥ ‘ऐसे पुरुष का दर्शन करें, लोग उसे अनन्य रूप से चाहते हैं'- ऐसा समर्थ रामदास ने कहा है। ऐसा जीवन बनाने की युक्ति गीता ने बतायी है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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