गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 197

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सोलहवां अध्याय
परिशिष्ट-1
दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा
92. आसुरी संपत्ति की तिहरी महत्त्वाकांक्षा: सत्ता, संस्कृति और संपत्ति

15. हमें दैवी संपत्ति का विकास करना है और आसुरी संपत्ति से दूर रहना है। आसुरी संपत्ति का वर्णन भगवान ने इसीलिए किया है कि उससे दूर रह सकें। इसमें कुल तीन बातें मुख्य हैं। असुरों के चरित्र का सार ‘सत्ता, संस्कृति और संपत्ति’ में है। वे कहते हैं- एक हमारी ही संस्कृति उत्कृष्ट है। और उनकी महत्त्वाकांक्षा होती है कि वही संसार पर लादी जाये। आपकी ही संस्कृति क्यों लादी जाये? तो कहते हैं- ‘वही सबसे अच्छी है।’ ‘अच्छी क्यों है?’ क्योंकि वह ‘हमारी’ है। चाहे आसुरी व्यक्ति हो, चाहे ऐसे व्यक्तियों से बने साम्राज्य हों, वे इन तीन चीजों का आग्रह रखते हैं।

16. ब्राह्मण भी तो ऐसा ही समझते हैं कि हमारी संस्कृति सर्वश्रेष्ठ है। सारा ज्ञान हमारे वेदों में भरा हुआ है। वैदिक संस्कृति की विजय सारे संसार में होनी चाहिए। अग्रतचतुरो वेदान् पृष्ठतः सशरं धनुः- इस तरह सज्ज होकर सारी पृथ्वी पर अपनी संस्कृति का झंडा फहराओ। परंतु पीछे पर जहाँ ‘सशरं धनुः’ होगा वहाँ आगे वाले बेचारे वेदों की समाप्ति ही समझिए। मुसलमान भी तो ऐसा ही समझते हैं कि कुरानशरीफ में जितनी कुछ लिखा है, वही सच है। ईसाई भी ऐसा ही मानते हैं। अन्य धर्म का मनुष्य कितना ही उच्च कोटि का क्यों न हो, उसका यदि ईसामसीह पर विश्वास नहीं होगा तो उसे स्वर्ग मिलने वाला नहीं। भगवान के घर को उन्होंने केवल एक ही दरवाजा और खिड़कियां लगाते हैं, परंतु बेचारे भगवान के घर को केवल एक ही दरवाजा रखते हैं।

17. आढयोऽभिजनवानस्मि कोऽन्योऽस्ति सदृशो मया- मैं ही कुलीन हूं, मैं ही श्रीमंत हूं, मेरे जोड़ का दूसरा कौन है? सब यही मानते हैं। मैं कौन? भारद्वाज-कुल का। मेरी यह परंपरा अबाधित रूप से चल रही है। यही हाल पश्चिमी लोगों का है। कहते हैं, हमारी नसों में नार्मन सरदारों का रक्त बहता है। हमारे यहाँ गुरु-परंपरा है न? मूल आदिगुरु है शंकर। फिर ब्रह्मदेव या और कोई, फिर नारद, व्यास, फिर कोई और ऋषि, फिर बीच में दस-पांच नाम और आते हैं, बाद में अपने गुरु का नाम और फिर मैं- ऐसी परंपरा बतायी जाती है। इस वंशावलि से यह सिद्ध किया जाता है कि हम श्रेष्ठ, हमारी संस्कृति श्रेष्ठ। भाई, यदि आपकी संस्कृति सचमुच ही श्रेष्ठ है, तो उसे अपने आचरण में दीखने दो न! अपने जीवन में उसकी प्रभा फैलने दो न! परंतु ऐसा नहीं होता। जो संस्कृति स्वयं हमारे जीवन में नहीं है, हमारे घर में नहीं है, उसे संसारभर में फैलाने की आकांक्षा रखना- इस विचार-पद्धति को ‘आसुरी’ कहते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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