गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 195

Prev.png
सोलहवां अध्याय
परिशिष्ट-1
दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा
90. अहिंसा के विकास की चार मंज़िलें

12. संतों के प्रयोग के बाद आज हम चौथा प्रयोग कर रहे हैं। वह है- सारा समाज मिलकर अहिंसात्मक साधनों से हिंसा का प्रतिकार करे। इस तरह चार प्रयोग अब तक हुए हैं। प्रत्येक प्रयोग में अपूर्णता थी और है। विकास-क्रम में यह बात अपरिहार्य ही है। परंतु यह तो कहना ही होगा कि उस-उस काल के लिए वे-वे प्रयोग पूर्ण ही थे और दस हजार साल के बाद आज के इस हमारे अहिंसक यृद्ध में भी बहुत-कुछ हिंसा का अंश दिखायी देगा।

शुद्ध अहिंसा के और प्रयोग होते ही रहेंगे। ज्ञान कर्म और भक्ति का ही नहीं, सभी सद्गुणों का विकास हो रहा है। पूर्ण वस्तु एक ही है। वह है परमात्मा। भगवद्गीता का पुरुषोत्तम योग पूर्ण है, परंतु व्यक्ति और समुदाय के जीवन में अभी उनका पूर्ण विकास होना बाकी है। वचनों का भी विकास होता है। ऋषि मंत्रों के द्रष्टा समझे जाते थे, कर्ता नहीं, क्योंकि उन्हें मंत्रों का जो अर्थ दीखा, वही उसका अर्थ हो, सो बात नहीं। उन्हें उनका एक दर्शन हुआ। उसके बाद हमें उसका और विकसित अर्थ दीख सकता है। उनसे यदि हमें कुछ अधिक दीख जाता है, तो यह हमारी विशेषता नहीं है, क्योंकि उन्हीं के आधार पर हम आगे बढ़ते हैं।

मैं यहाँ अहिंसा के ही विकास की जो बात कर रहा हूं, वह इसलिए कि यदि हम सब सद्गुणों का साधारण रूप से सार निकालें, तो वह अहिंसा ही निकलेगा, और दूसरे, हम आज अहिंसात्मक युद्ध में पड़े हुए भी हैं। इस तरह हमने देखा कि इस तत्त्व का विकास कैसे हो रहा है।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः