गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 191

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सोलहवां अध्याय
परिशिष्ट-1
दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा
89. अहिंसा की और हिंसा की सेना

6. हमारे अंतःकरण में एक और सद्गुण, तो दूसरी ओर दुर्गुण खड़े हैं। उन्होंने अपनी व्यवस्थित व्यूह-रचना कर रखी है। सेना में जिस प्रकार सेनापति आवश्यक है, उसी प्रकार यहाँ भी सद्गुणों ने एक सेनापति बना रखा है। उसका नाम है- ‘अभय’। इस अध्याय में ‘अभय’ को पहला स्थान दिया गया है। यह कोई आकस्मिक बात नहीं है। जान-बूझकर ही इस ‘अभय’ शब्द को पहला स्थान दिया होगा। बिना अभय के कोई भी गुण पनप नहीं सकता। सच्चाई के बिना सद्गुण का कोई मूल्य नहीं है, किंतु सच्चाई के लिए निर्भयता आवश्यक है। भयभीत वातावरण में सद्गुण फैल नहीं सकते, बल्कि भयभीत वातावरण में सद्गुण भी दुगुर्ण बन जायेंगे, सत्य प्रवृत्तियां भी कमज़ोर पड़ जायेंगी। निर्भयत्व सब सद्गुणों का नायक है; परंतु सेना को आगा और पीछा, दोनों संभालना पड़ता है। सीधा हमला तो सामने से होता है, परंतु पीछे से चुपचाप चोर-हमला भी हो सकता है। सद्गुणों के सामने ‘अभय’ खम ठोंककर खड़ा है, तो पीछे से ‘नम्रता’ रक्षा कर रही है। इस तरह बड़ी सुंदर रचना की गयी है। यहाँ कुल छब्बीस गुण बताये गये हैं। इनमें से पच्चीस गुण प्राप्त हो जायें और यदि कहीं उसका अहंकार हो जाये, तो पीछे से एकाएक चोर-हमले से सारी कमाई खो जाने का भय है। इसीलिए पीछे ‘नम्रता’ नामक सद्गुण रखा गया है। यदि नम्रता न हो, तो यह ‘जय’ कब ‘पराजय’ में परिणत हो जायेगी, इसका पता भी नहीं चलेगा।

इस तरह सामने ‘निर्भयता’ और पीछे ‘नम्रता’ को रखकर सब सद्गुणों का विकास किया जा सकेगा। इन दो महान गुणों के बीच जो चौबीस गुण रखे गये हैं, वे सब अधिकतर अहिंसा के पर्यायवाची हैं, ऐसा कहा जा सकता है। भूतदया, मार्दव, क्षमा, शांति, अक्रोध, अहिंसा, अद्रोह- ये सब अहिंसा के ही दूसरे नाम हैं। अहिंसा और सत्य, इन दो गुणों में इन सब सद्गुणों का समावेश हो जाता है। सब सद्गुणों का यदि संक्षेप किया जाये, तो अंत में अहिंसा और सत्य, ये ही दो बाकी रह जायेंगे। शेष सब सद्गुण इनके उदर में समा जायेंगे, परंतु निर्भयता और नम्रता की बात अलग है। निर्भयता से प्रगति की जा सकती है और नम्रता से बचाव होता है। सत्य और अहिंसा इन दो गुणों की पूंजी लेकर निर्भयतापूर्वक आगे बढ़ना चाहिए।

जीवन विशाल है। उसमें अनिरुद्ध संचार करते चले जाना चाहिए। पांव गलत न पड़ जाये, इसके लिए सदा नम्र रहें, फिर कोई खतरा नहीं रह जाता। तब निर्भयतापूर्वक सत्य-अहिंसा के प्रयोग सर्वत्र करते हुए आगे बढ़ सकते हैं। तात्पर्य यह कि सत्य और अहिंसा का विकास निर्भयता और नम्रता के द्वारा होता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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