दूसरा अध्याय
सब उपदेश थोड़े में: आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि
10. आदर्श गुरुमूर्ति
23. यह इंद्रिय-संयम सरल नहीं है। इंद्रियों से बिलकुल काम ही न लेना एक तरह आसान हो सकता है। मौन, निराहार आदि बातें इतनी कठिन नहीं है। इससे उल्टे, इंद्रियों को खुला छोड़ देना तो सबके लिए सधा-सधाया ही है। परन्तु जिस प्रकार कछुआ खतरे की जगह अपने सभी अवयवों को भीतर खींच लेता है और बिना खतरे वाली जगह पर उनसे काम लेता है; उसी तरह विषय-भोगों से इंद्रियों को समेट लेना और परमार्थ के काम में उनका उचित उपयोग करना, यह संयम कठिन है। इसके लिए महान प्रयत्न की जरूरत है। ज्ञान भी चाहिए। परन्तु इतना होने पर भी ऐसा नहीं है कि वह हमेशा अच्छी तरह सध ही जायेगा। तब क्या हम निराश हो जायें? नहीं, साधक को कभी निराश नहीं होना चाहिए। वह साधना की अपनी सब युक्तियां काम में लाये और फिर भी कमी रह जाये, तो उसमें भक्ति जोड़ दे। यह बड़ा कीमती सुझाव भगवान ने स्थितप्रज्ञ के लक्षणों में दिया है। हां, वह दिया है गिने गिनाये शब्दों में ही। परन्तु ढेरों व्याख्यानों की अपेक्षा वह अधिक कीमती है; क्योंकि जहाँ भक्ति की अचूक आवश्यकता है, वहीं वह उपस्थित की गयी है। स्थितप्रज्ञ के लक्षणों का सविस्तार विवरण हमें आज यहाँ नहीं करना है। परन्तु हम अपनी इस सारी साधना में भक्ति का अपना निश्चित स्थान कहीं भूल न जायें; इसलिए उसकी ओर ध्यान दिया गया। पूर्ण स्थितप्रज्ञ इस जगत में कौन हो गया, सो तो भगवान ही जाने; परन्तु सेवापरायण स्थितप्रज्ञ के उदाहरण के रूप में पुंडलीक की मूर्ति सदैव मेरी आंखों के सामने आती रहती है। वह मैनें आपके सामने रख ही दी है। 24. अच्छा, अब स्थितप्रज्ञ के लक्षण पूरे हुए, दूसरा अध्याय भी समाप्त हुआ। (निगुण) सांख्य-बृद्धि + (सगुण) योग-बुद्धि + (साकार) स्थितप्रज्ञ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ रविवार, 28-2-32
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