पंद्रहवां अध्याय
पूर्णयोग: सर्वत्र पुरुषोत्तम-दर्शन
86. ज्ञान-लक्षण: मैं पुरुष, वह पुरुष, यह भी पुरुष
20. जीवन में परम भक्ति का संचार हो जाने पर जो कर्म होता है, वह भक्ति और ज्ञान से अलग नहीं रहता। कर्म, भक्ति और ज्ञान मिलाकर एक ही रमणीय रूप बन जाता है। इस रमणीय रूप में से अद्भुत प्रेममय और ज्ञानमय सेवा सहज ही उत्पन्न होती है। मां पर मेरा प्रेम है, किंतु यह प्रेम कर्म के द्वारा प्रकट होना चाहिए। प्रेम सदैव मरता-खपता रहता है। सेवारूप में व्यक्त होता रहता है। प्रेम का बाह्यरूप है सेवा। प्रेम अनंत सेवा-कर्मो से सजकर नाचता है। प्रेम हो तो ज्ञान भी वहाँ आ जाता है। जिसकी सेवा मुझे करनी है, उसे कौन-सी सेवा प्रिय होगी, इसका ज्ञान मुझे होना चाहिए, नहीं तो वह सेवा कु-सेवा होगी। सेव्य वस्तु का ज्ञान प्रेम को होना चाहिए। प्रेम का प्रभाव कार्य द्वारा फैलाने के लिए ज्ञान की आवश्यकता है, परंतु मूल में प्रेम होना चाहिए। वह न हो, तो ज्ञान निरुपयोगी हो जाता है। प्रेम के द्वारा होने वाला कर्म मामूली कर्म से भिन्न होता है। खेत से थके-मांद आये लड़के पर मां प्रेम की दृष्टि डालती है और कहती है- ‘बेटा, थक गये हो!’ परंतु छोटे कर्म में, देखिए तो कितना सामर्थ्य है। अपने जीवन के समस्त कर्म में ज्ञान और भक्ति को ओतप्रोत कीजिए। यही ‘पुरुषोत्तम योग’ कहलाता है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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