गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 186

Prev.png
पंद्रहवां अध्याय
पूर्णयोग: सर्वत्र पुरुषोत्तम-दर्शन
86. ज्ञान-लक्षण: मैं पुरुष, वह पुरुष, यह भी पुरुष

20. जीवन में परम भक्ति का संचार हो जाने पर जो कर्म होता है, वह भक्ति और ज्ञान से अलग नहीं रहता। कर्म, भक्ति और ज्ञान मिलाकर एक ही रमणीय रूप बन जाता है। इस रमणीय रूप में से अद्भुत प्रेममय और ज्ञानमय सेवा सहज ही उत्पन्न होती है। मां पर मेरा प्रेम है, किंतु यह प्रेम कर्म के द्वारा प्रकट होना चाहिए। प्रेम सदैव मरता-खपता रहता है। सेवारूप में व्यक्त होता रहता है। प्रेम का बाह्यरूप है सेवा। प्रेम अनंत सेवा-कर्मो से सजकर नाचता है। प्रेम हो तो ज्ञान भी वहाँ आ जाता है। जिसकी सेवा मुझे करनी है, उसे कौन-सी सेवा प्रिय होगी, इसका ज्ञान मुझे होना चाहिए, नहीं तो वह सेवा कु-सेवा होगी। सेव्य वस्तु का ज्ञान प्रेम को होना चाहिए। प्रेम का प्रभाव कार्य द्वारा फैलाने के लिए ज्ञान की आवश्यकता है, परंतु मूल में प्रेम होना चाहिए। वह न हो, तो ज्ञान निरुपयोगी हो जाता है। प्रेम के द्वारा होने वाला कर्म मामूली कर्म से भिन्न होता है। खेत से थके-मांद आये लड़के पर मां प्रेम की दृष्टि डालती है और कहती है- ‘बेटा, थक गये हो!’ परंतु छोटे कर्म में, देखिए तो कितना सामर्थ्य है। अपने जीवन के समस्त कर्म में ज्ञान और भक्ति को ओतप्रोत कीजिए। यही ‘पुरुषोत्तम योग’ कहलाता है।


Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः