पंद्रहवां अध्याय
पूर्णयोग: सर्वत्र पुरुषोत्तम-दर्शन
84. सेवा की त्रिपुटि: सेव्य, सेवक, सेवा-साधन
8. इस विश्व में हमें अनंत वस्तुए दिखायी देती हैं। इनके तीन भाग करें। जब कोई भक्त सुबह उठता है, तो तीन ही चीजें उसकी आंखों के सामने आती हैं। पहले उसका ध्यान भगवान की तरफ जाता है। तब वह उनकी पूजा की तैयारी करता है। मैं सेवक भक्त, वह सेव्य भगवान स्वामी- ये दो चीजें उसके पास सदैव तैयार रहती हैं। अब रही बाकी सृष्टि, सो वह है उसकी पूजा का साधन। यह सारी सृष्टि फूल, गंध, धूप-दीप हैं। तीन ही चीजें हैं- सेवक भक्त, सेव्य परमात्मा और सेवा-साधन के रूप में यह सृष्टि। यही शिक्षा इस अध्याय में दी गयी है। परंतु जो सेवक किसी एक मूर्ति की पूजा करता है, उसे सृष्टि के सब पदार्थ पूजा के साधन नहीं मालूम होते। वह बगीचे से चार फूल तोड़कर लाता है, कहीं से अगरबत्ती ले आता है, कुछ नैवेद्य चढ़ाता हैं वह चुनकर-छांटकर ही चीजें लेना चाहता है; परंतु पंद्रहवें अध्याय में जो विशाल सीख दी गयी है, उसमें यह चुनाव करने की जरूरत नहीं है। जो कुछ भी तपस्या के साधन हैं, कर्म के साधन हैं, वे सब परमेश्वर की सेवा के साधन हैं। उनमें से कुछ को हम फूल कहेंगे, कुछ को गंध और कुछ को नैवेद्य। इस तरह जितने भी कर्म हैं उन सबको पूजा-द्रव्य बना देना है। ऐसी यह दृष्टि है। बस संसार में सिर्फ ये तीन ही चीजें हैं। गीता जिस वैराग्यमय साधन मार्ग को हमारे मन पर अंकित करना चाहती है, उसी को वह भक्तिमय स्वरूप दे रही है। उसमें से कर्मत्व हटा रही है और उसमें सुलभता ला रही है। 9. आश्रम में जब किसी को बहुत ज्यादा काम करना पड़ता है; तब उसके मन में यह विचार ही कभी नहीं आता- 'मैं ही क्यों ज्यादा काम करूं?' इस बात में बड़ा सार है। पूजा करने वाले को यदि दो की जगह चार घंटे पूजा करने को मिले, तो क्या वह उकताकर ऐसा कहेगा- ‘अरे राम, आज तो चार घंटा पूजा करनी पड़ी।’ बल्कि उससे उसे अधिक ही आनंद मालूम होगा। आश्रम में ऐसा अनुभव होता है। यही अनुभव हमें सारे जीवन में सर्वत्र आना चाहिए। जीवन सेवा-परायण हो जाना चाहिए। वह सेव्य पुरुषोत्तम, उसकी सेवा के लिए सदैव तत्पर मैं अक्षर पुरुष हूँ। ‘अक्षर पुरुष’ का अर्थ है, कभी भी न थकनेवाला, सृष्टि के आरंभ से ही सेवा करने वाला, सनातन सेवक। जैसे हनुमान राम के सामने सदैव हाथ जोड़कर खड़े ही हैं। उन्हें आलस्य मालूम नहीं। हनुमान की तरह ही चिरंजीव यह सेवक खड़ा है। ऐसे आजन्म सेवक का ही नाम ‘अक्षर-पुरुष’ है। ‘परमात्मा’ यह संस्था जीवित है और मैं उसका ‘सेवक’ भी सदैव कायम हूँ। प्रभु कायम है, तौ मैं भी कायम हूँ। देखें, वह सेवा लेते हुए थकता है या मैं सेवा करते हुए? यदि उसने दस अवतार लिये हैं, तो मेरे भी दस अवतार हुए हैं। वह राम हुआ तो मैं हनुमान, वह कृष्ण हुआ तो मै उद्धव। जितने उसके अवतार, उतने मेरे भी लगने दो ऐसी मीठी होड़! परमेश्वर की इस तरह युग-युग सेवा करने वाला, कभी नाश न पानेवाला यह जीव अक्षर-पुरुष है। वह पुरुषोत्तम स्वामी और मैं उसका बंदा सेवक। यह भावना सतत हृदय में रखनी चाहिए। और यह प्रतिक्षण बदलनेवाली, अनंत रूपों से सजने वाली सृष्टि, इसे पूजा साधन, सेवा का साधन बनाना है। प्रत्येक क्रिया मानो पुरुषोत्तम की पूजा ही है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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