पंद्रहवां अध्याय
पूर्णयोग: सर्वत्र पुरुषोत्तम-दर्शन
83. भक्ति से प्रयत्न सुकर होता है
7. ऐसा होने पर भी यह बात नहीं कि भक्ति में विशेष गुण न हो। किसी भी कर्म में जब भक्ति-तत्त्व मिलेगा, तभी वह सुलभ लगेगा। ‘सुलभ’ लगने का अर्थ यह नहीं कि कष्ट होंगे ही नहीं। उसका अर्थ यही है कि वे कष्ट ‘कष्ट’ नहीं मालूम होंगे, उलटे आनंद रूप मालूम होंगे। शूल फूल जैसे प्रतीत होंगे। भक्ति-मार्ग सरल है, इसका तात्पर्य भी क्या है? यही कि भक्ति-भाव के कारण कर्म का बोझ नहीं मालूम होता। कर्म की कठिनता चली जाती है। कितना ही कर्म करो, वह न किये-सा मालूम होता है। भगवान ईसा मसीह एक जगह कहते हैं- ‘यदि तू उपवास करता है, तो चेहरे पर उपवास के चिह्न नहीं दीखने चाहिए; बल्कि गालों पर सुगंधित उबटन लगे हों, ऐसा चेहरा प्रफुल्लित और आनंदित दीखना चाहिए। उपवास से कष्ट हो रहा है, ऐसा नहीं दीखना चाहिए।’ सारांश यह कि वृत्ति इतनी भक्तिमय हो कि कष्ट भूल जायें। हम कहते हैं न कि ‘फलां बहादुर देश भक्त हंसते-हंसते फांसी पर चढ़ गया।’ सुधन्वा तेल की कढ़ाई में हंस रहा था। मुंह से कृष्ण, विष्णु, हरि, गोविंद की ध्वनि निकल रही थी। इसका अर्थ यही कि अपार कष्ट आ पड़ने पर भी भक्ति के प्रभाव से वे कुछ भी नहीं मालूम हुए। पानी पर पड़ी हुई नाव को धकेलना कठिन नहीं है; परंतु यदि उसी को धरती पर से, चट्टानों पर से खींचकर ले जाना हो, तो कितनी मेहनत पड़ेगी! नाव के नीचे यदि पानी होगा, तो हम सहज ही तर जायेंगे। इसी तरह हमारी जीवन-नौका के नीचे यदि भक्ति रूपी पानी होगा, तो वह आनंद से खेयी जा सकेगी। परंतु यदि जीवन शुष्क होगा, रास्ते में रेत पड़ी होगी, कंकड़, पत्थर होंगे, खाई-खड्ड होंगे, तो इस नौका को खींचकर ले जाना बड़ा कठिन काम हो जायेगा। भक्ति-तत्त्व हमारी जीवन-नौका को पानी की तरह सुलभता प्राप्त करा देता है। भक्ति-मार्ग से साधना में सुलभता आ जाती है, परंतु आत्मज्ञान के बिना सदा के लिए त्रिगुणों के उस पार जाने की आशा नहीं। तो फिर आत्म-ज्ञान के लिए साधन क्या? यही कि सत्त्व-सातत्य से सत्त्वगुण को आत्मसात करके भक्ति के द्वारा उसका अहंकार और उसके फल की आसक्ति जीतने का प्रयत्न करना। इस साधना के द्वारा सतत, अखंड प्रयत्न करते हुए एक दिन आत्मदर्शन हो जायेगा। तब तक हमारे प्रयत्न का अंत नहीं आ सकता। यह परम पुरुषार्थ की बात है। आत्मदर्शन कोई हंसी-खेल नहीं है। रास्ता चलते यों ही आत्मदर्शन हो जायेगा, ऐसा नहीं है। उसके लिए सतत प्रयत्न की धारा बहानी होगी। परमार्थ-मार्ग में शर्त ही यह है कि ‘मैं निराशा को एक क्षण भी जगह न दूं। क्षण भर भी मैं निराश होकर न बैठूं। इसके सिवा परमार्थ का दूसरा साधन नहीं है। कभी-कभी साधक थक जाता है और कहने लगता है- तुम कारन तप संयम किरिया, कहो कहाँ लौ कीजै? ‘भगवन, मैं तुम्हारे लिए कहाँ तक तप करता रहूं?’ परंतु यह कहना गौण है। तप और संयम का हम इतना अभ्यास कर ले कि वे हमारा स्वभाव ही बन जायें। ‘कहां तक साधना करते रहें?’- यह भाषा भक्तिमार्ग में शोभा नहीं देती। भक्ति कभी भी अधीर भाव, निराशा भाव पैदा नहीं होने देती। जी ऊबने जैसी कोई बात उसमें नहीं होनी चाहिए। भक्ति में उत्तरोत्तर उल्लास और उत्साह मालूम होता रहे, इसके लिए बहुत सुंदर विचार इस अध्याय में बताया गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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