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पंद्रहवां अध्याय
पूर्णयोग: सर्वत्र पुरुषोत्तम-दर्शन
83. भक्ति से प्रयत्न सुकर होता है
6. मैं जीवन के टुकड़े नहीं कर सकता। कर्म, ज्ञान और भक्ति को मैं पृथक-पृथक नहीं कर सकता, न ये पृथक हैं ही। उदाहरण के लिए इस जेल के रसोई के काम को ही देखिए। पांच-सात सौ मनुष्यों की रसोई बनाने का काम अपने में से कुछ लोग करते हैं। यदि इनमें कोई ऐसा मनुष्य हो, जो रसोई बनाने का ठीक-ठीक ज्ञान न रखता हो, तो वह रसोई बिगाड़ देगा। रोटियां कच्ची रह जायेंगी या जल जायेंगी। परंतु यहा हम यह मानकर चलें कि रसोई बनाने का उत्तम ज्ञान है; फिर भी यदि उस व्यक्ति के हृदय में उस कर्म के प्रति प्रेम न हो, भक्ति का भाव न हो, ‘ये रोटियां मेरे भाइयों को अर्थात नारायण को ही खानी है, इन्हें अच्छी तरह बेलना और सेंकना चाहिए, यह प्रभु की सेवा है’- ऐसा भाव उसके हृदय में न हो, तो पूर्वोक्त ज्ञान रहने पर भी वह इस काम के लिए उपयुक्त सिद्ध नहीं होगा।
इस रसोई-काम के लिए जैसे ज्ञान आवश्यक है, वैसे ही प्रेम भी चाहिए। भक्ति तत्त्व का रस हृदय में न हो, तो रसोई स्वादिष्ट नहीं बन सकती। इसलिए तो बिना मां के यह काम नहीं होता। मां के सिवा कौन इस काम को इतनी आस्था से, प्रेम-भाव से करेगा? फिर इसके लिए तपस्या भी चाहिए। ताप सहन किये बिना, कष्ट उठाये बिना यह काम कैसे होगा? तीनों चीजों की जरूरत है। जीवन के सारे कर्म इन तीन गुणों पर खड़े हैं। तिपाई का यदि एक पांव भी टूट जाये, तो वह खड़ी नही रह सकती। तीनों पांव चाहिए। उसके नाम में ही उसका रूप निहित है। यही हाल जीवन का है। ज्ञान, भक्ति और कर्म अर्थात श्रम-सातत्य, ये जीवन के तीन पांव है। इन तीन खंभों पर जीवनरूपी 'द्वारका' खड़ी करनी है। ये तीन पांव मिलाकर एक ही वस्तु बनती है। उस पर तिपाई का दृष्टांत अक्षरशः लागू होता है। तर्क के द्वारा भले ही आप भक्ति, ज्ञान और कर्म को पृथक मानिए, परंतु प्रत्यक्ष रूप से इन्हें पृथक नहीं किया जा सकता। तीनों मिलकर एक ही विशाल वस्तु बनती है।
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