चौदहवां अध्याय
गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार
81. अंतिम बात: आत्मज्ञान और भक्ति का आश्रय
27. अब अंतिम बात! भले ही आप सत्त्वगुणी हो जाइए। अहंकार को जीत लीजिए, फलासक्ति भी छोड़ दीजिए; फिर भी जब तक यह शरीर चिपका है, तब तक बीच-बीच में रज-तम के हमले होते ही रहेंगे। थोड़ी देर के लिए हमें ऐसा लगा भी कि हमने इन गुणों को जीत लिया, तो भी वे फिर-फिर जोर मारेंगे। अतः सतत जागृत रहना चाहिए। समुद्र का पानी वेग से भीतर घुसकर जिस तरह खाड़ियां बना लेता है, उसी तरह रज-तम के जोरदार प्रवाह हमारी मनोभूमि में प्रविष्ट होकर खाड़ियां बना लेते हैं। अतः जरा भी छिद्र न रहने दीजिए। पक्का इंतजाम और पहरा रखिए। चाहे कितनी ही सावधानी, दक्षता रखिए, जब तक आत्मज्ञान नहीं हुआ है, आत्मदर्शन नहीं हो पाया है, तब तक खतरा ही समझिए। अतः जैसे भी हो, आत्मज्ञान प्राप्त कर लीजिए। 28. आत्मज्ञान कोरी जागृति की कसरत से नहीं होगा। तो फिर कैसे होगा? क्या अभ्यास से? नहीं, उसका एक ही उपाय है। वह है- ‘सच्चे हृदय से प्रेमपूर्वक भगवान की भक्ति करना।’ आप रज और तम गुणों को जीतेंगे, सतत्त्वगुण को स्थिर करके उसकी फलासक्ति भी जीत लेंगे, परन्तु इतने से भी काम नहीं चलेगा। जब तक आत्मज्ञान नहीं हुआ है, तब तक काम चलने वाला नहीं। अतः अंत में भगवत्कृपा चाहिए ही। सच्ची हार्दिक भक्ति के द्वारा उसकी कृपा का पात्र बनना चाहिए। इसके सिवा मुझे दूसरा उपाय नहीं दिखायी देता। इस अध्याय के अंत में अर्जुन ने यही प्रश्न पूछा है और भगवान ने उत्तर दिया है- "अत्यंत एकाग्र मन से निष्काम भाव से मेरी भक्ति करो, मेरी सेवा करो। जो इस प्रकार मेरी सेवा करता है, माया के उस पार जा सकता है, नहीं तो इस गहन माया को तरा नहीं जा सकता।" यह भक्ति का सरल उपाय है। यह एक ही मार्ग है। [1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ रविवार, 22-5-32
संबंधित लेख
अध्याय | अध्याय का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज