चौदहवां अध्याय
गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार
80. सत्त्वगुण और उसका उपाय
25. पहले अहंकार को जीतो, फिर आसक्ति को। सातत्य से अहंकार जीत सकते हैं। फलासक्ति को छोड़कर सत्त्वगुण से प्राप्त फल को भी ईश्वरार्पण करके आसक्ति को जीतें। जीवन में सत्त्वगुण स्थिर हो जाता है, तब कभी सिद्धि के रूप में तो कभी कीर्ति के रूप में फल सामने आ खड़ा होता है। परंतु उस फल को भी तुच्छ मानिए। आम का पेड़ अपना एक भी फल खुद नहीं खाता। वह फल कितना ही बढ़िया हो, कितना ही मीठा हो, कितना ही रसीला हो, पर खाने की अपेक्षा, न खाना ही उसे मधुरतर लगता है। उपभोग की अपेक्षा त्याग अधिक मधुर है।
26. धर्मराज ने जीवन के सारे पुण्य सारस्वरूप स्वर्ग-सुखरूपी फल को भी अंत में ठुकरा दिया। जीवन के सारे त्यागों पर उन्होंने कलश चढ़ा दिया। उन मधुर फलों को चखने का उन्हें अधिकार था। परंतु यदि वे उन्हें चख लेते तो सब स्वाहा हो जाता। क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति- यह चक्र फिर उनके पीछे लग जाता। धर्मराज का कितना महान यह त्याग! वह सदैव मेरी आंखों के सामने खड़ा रहता है। इस तरह सत्त्वगुण के सतत आचरण द्वारा उसके अहंकार को जीत लेना चाहिए। तटस्थ रहकर सब फल ईश्वर को सौंपकर उसकी आसक्ति से छूट जाना चाहिए। तब कह सकते हैं कि सत्त्वगुण पर विजय प्राप्त हो गयी।
|