गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 174

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चौदहवां अध्याय
गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार
80. सत्त्वगुण और उसका उपाय

25. पहले अहंकार को जीतो, फिर आसक्ति को। सातत्य से अहंकार जीत सकते हैं। फलासक्ति को छोड़कर सत्त्वगुण से प्राप्त फल को भी ईश्वरार्पण करके आसक्ति को जीतें। जीवन में सत्त्वगुण स्थिर हो जाता है, तब कभी सिद्धि के रूप में तो कभी कीर्ति के रूप में फल सामने आ खड़ा होता है। परंतु उस फल को भी तुच्छ मानिए। आम का पेड़ अपना एक भी फल खुद नहीं खाता। वह फल कितना ही बढ़िया हो, कितना ही मीठा हो, कितना ही रसीला हो, पर खाने की अपेक्षा, न खाना ही उसे मधुरतर लगता है। उपभोग की अपेक्षा त्याग अधिक मधुर है।

26. धर्मराज ने जीवन के सारे पुण्य सारस्वरूप स्वर्ग-सुखरूपी फल को भी अंत में ठुकरा दिया। जीवन के सारे त्यागों पर उन्होंने कलश चढ़ा दिया। उन मधुर फलों को चखने का उन्हें अधिकार था। परंतु यदि वे उन्हें चख लेते तो सब स्वाहा हो जाता। क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति- यह चक्र फिर उनके पीछे लग जाता। धर्मराज का कितना महान यह त्याग! वह सदैव मेरी आंखों के सामने खड़ा रहता है। इस तरह सत्त्वगुण के सतत आचरण द्वारा उसके अहंकार को जीत लेना चाहिए। तटस्थ रहकर सब फल ईश्वर को सौंपकर उसकी आसक्ति से छूट जाना चाहिए। तब कह सकते हैं कि सत्त्वगुण पर विजय प्राप्त हो गयी।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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