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चौदहवां अध्याय
गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार
80. सत्त्वगुण और उसका उपाय
24. दूसरी युक्ति है, सत्त्वगुण की आसक्ति भी छोड़ देना। अहंकार और आसक्ति , ये दो भिन्न-भिन्न वस्तुएं हैं। यह भेद जरा सूक्ष्म है। दृष्टांत से जल्दी समझ में आ जायेगा। सत्त्वगुण का अहंकार चला जाने पर भी आसक्ति रह जाती है। श्वासोच्छ्वास का ही उदाहरण लें। सांस लेने का अभिमान तो नहीं होता, परंतु उसमें बड़ी आसक्ति रहती है। यदि कहो कि पांच मिनट तक सांस रोके रहो, तो नहीं बनता। नाक को श्वासोच्छ्वास का अभिमान भले ही न हो, परंतु वह हवा बराबर लेती रहती है। सुकरात की एक मजेदार कहानी है। उसकी नाक थी फूली हुई। अतः लोग उसे देखकर हंसा करते। परंतु हंसोड़ सुकरात कहता- ‘मेरी ही नाक सुंदर हैं। जिस नाक के नासापुट बड़े हों, वह भरपूर हवा ले सकती है और इसलिए वही सबसे सुंदर है।’ तात्पर्य यह कि नाक को श्वासोच्छ्वास का अभिमान तो नहीं पर आसक्ति है। सत्त्वगुण के प्रति भी इसी तरह आसक्ति हो जाती है। जैसे भूतदया। यह गुण अत्यंत उपयोगी है, परंतु उसकी भी आसक्ति से दूर रह सकें, ऐसा सधना चाहिए। भूतदया आवश्यक है, परंतु उसकी आसक्ति नही होनी चाहिए।
संत लोग इस सतत्त्वगुण की ही बदौलत दूसरों के मार्गदर्शक बनते हैं। उनकी देह भूतदया के कारण सार्वजनिक हो जाती है। मक्खियां जिस प्रकार गुड़ की भेली को ढांक लेती हैं, उसी प्रकार सारी दुनिया संतों पर अपने प्रेम की चादर ओढ़ाती है। संतों के अंदर प्रेम का इतना प्रकर्ष हो जाता है कि सारा विश्व उनसे प्रेम करने लगता है। संत अपनी देह की आसक्ति छोड़ देते हैं, अतः सारे संसार की आसक्ति उन पर हो जाती है। सारी दुनिया उन के शरीर की चिन्ता करने लगती है। परन्तु यह आसक्ति भी संतों को दूर करनी चाहिए। यह जो संसार का प्रेम है, यह महान फल है, उससे भी आत्मा को पृथक करना चाहिए। मैं कोई विशेष हूं- ऐसा कभी नहीं लगना चाहिए। इस तरह सत्त्वगुण को शरीर में हजम कर डालना चाहिए।
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