गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 172

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चौदहवां अध्याय
गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार
80. सत्त्वगुण और उसका उपाय

22. इस सत्त्वगुण के अहंकार को जीता कैसे जाये? इसका एक उपाय है- सतत्त्वगुण को हम अपने अंदर स्थिर कर लें। सातत्य से उसका अभिमान चला जाता है। सत्त्वगुण युक्त कर्मो को ही हम सतत करते रहें। उसे अपना स्वभाव ही बना लें। सतत्त्वगुण हमारे यहाँ घड़ी भर के लिए आया हुआ मेहमान ही न रहे, बल्कि वह घर का आदमी बन जाये। जो क्रिया कभी-कभी हमसे होती है, उसका हमें अभिमान होता है। हम रोज सोते हैं, परंतु उसको दूसरों से कहते नहीं फिरते। लेकिन किसी बीमार को पंद्रह दिन नींद न आयी हो और फिर जरा-सी नींद आ जाये, तो वह सबसे कहता है- ‘कल तो भाई थोड़ी नींद आयी।’ उसे वह बात महत्त्वपूर्ण मालूम होती है। इससे भी अच्छा उदाहरण हम श्वासोच्छवास की क्रिया का ले सकते हैं। सांस हम चौबीसों घंटे लेते हैं, परन्तु हर किसी से उसका जिक़्र नहीं करते। कोई यह डींग नहीं मारता कि ‘मैं एक सांस लेने वाला महान प्राणी हूँ।’ हरिद्वार से गंगा में फेंका तिनका यदि बहता-बहता डेढ़ हजार मील दूर कलकत्ता में पहुँच जाये, तो क्या वह उस पर गर्व करेगा? वह तो धारा के साथ सहज रूप से बहता चला आया। परंतु यदि कोई बाढ़ की उलटी धारा में दस-बीस हाथ तैर गया, तो वह कितनी शेखी बघारेगा! सारांश यह कि जो बात स्वाभाविक होती है, उसका हमें अहंकार नहीं होता।

23. कोई एकाध अच्छा काम हमारे हाथ से हो जाता है, तो हमें उसका अभिमान मालूम होता है। क्यों? इसलिए कि वह बात सहज रूप से नहीं हुई। मुन्ना के हाथ से कोई काम अच्छा हो जाये, तो मां उसकी पीठ पर हाथ फेरती है। वरना यों तो मां की छड़ी से ही हमेशा उसकी पीठ की भेंट होती है। रात के घने अंधकार में एकाध जुगनू हो, तो फिर देखिए उसकी ऐंठ! वह एकबारगी अपनी सारी चमक नहीं दिखाता। बीच में लुक-लुक करता है, फिर रुकता है, फिर लुक-लुक करता है। वह प्रकाश की आंखमिचौनी खेलता है। परंतु उसका प्रकाश यदि सतत रहने लगे, तो फिर उसकी ऐंठ नहीं रहेगी। सातत्य के कारण विशेषता मालूम नहीं होती। इस तरह सत्त्वगुण यदि हमारी क्रियाओं में सतत प्रकट होने लगे, तो फिर वह हमारा स्वभाव हो जायेगा। सिंह को अपने शौर्य का अभिमान नहीं रहता, उसे उसका भान भी नहीं रहता। इसी तरह अपनी सात्त्विक वृत्ति को इतनी सहज हो जाने दो कि हम सात्त्विक हैं, इसकी स्मृति भी हमें न होने पाये। प्रकाश देना सूर्य की नैसर्गिक क्रिया है। उसका सूर्य को कोई अभिमान नहीं रहता। उसके लिए यदि कोई सूर्य को मानपत्र देने जाये, तो वह कहेगा- ‘इसमें मैंने विशेष क्या किया? मैं प्रकाश देता हूं, तो अधिक क्या करता हूं? प्रकाश देना ही मेरा जीवन है। प्रकाश न दूं, तो मैं मर जाऊंगा। मैं दूसरी कोई चीज जानता ही नहीं।’ ऐसी ही स्थिति सात्त्विक मनुष्य की हो जानी चाहिए। सत्त्वगुण का ऐसा स्वभाव ही बन जाये, तो हमें उसका अभिमान नहीं होगा। सत्त्वगुण को निस्तेज करने की, उसे जीतने की यह एक युक्ति हुई।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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