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चौदहवां अध्याय
गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार
78. रजोगुण और उसका उपाय स्वधर्म-मर्यादा
13. इसके उपरांत रजोगुण से मोर्चा लेना है। रजोगुण भी एक भयानक शत्रु है। तमोगुण का ही दूसरा पहलू है, बल्कि यही कहना चाहिए कि दोनों पर्यायवाची शब्द हैं। जब शरीर बहुत सो चुकता है, तो वह हलचल करने लगता है और जब शरीर बहुत दौड़-धूप कर चुकता है, तब बिस्तर पर पड़ना चाहता है। तमोगुण से रजोगुण और रजोगुण से तमोगुण पैदा होता है। जहाँ एक है, वहाँ दूसरा आया ही समझिए, जिस तरह रोटी आग और गरम राख के बीच फंस जाती है, उसी तरह मनुष्य के आगे-पीछे ये रजोगुण-तमोगुण लगे ही रहते हैं। रजोगुण कहता है- ‘इधर आ, तुझे तमोगुण की तरफ उड़ाऊं।' तमोगुण कहता है- ‘मेरी तरफ आ, तुझे रजोगुण की ओर फेंकता हूँ।' इस प्रकार ये रजोगुण और तमोगुण परस्पर सहायक होकर मनुष्य का नाश कर डालते हैं। फुटबॉल का जन्म जैसे ठोकरें खाने के लिए है, वैसे ही मनुष्य का जीवन रजोगुण और तमोगुण की ठोकरें खाने में ही बीतता है।
14. रजोगुण का प्रधान लक्षण है- नाना प्रकार के काम करने की लालसा, प्रचंड कर्म करने की अपार आसक्ति। रजोगुण के द्वारा अपरंपार कर्म-संग चिपकता है। लोभात्मक कर्मासक्ति उत्पन्न होती है। फिर वासना-विकारों का वेग काबू में नहीं रह पाता। इधर का पहाड़ उठाकर उधर का गड्ढा भर डालने की इच्छा होती है। समुद्र में मिट्टी डालकर उसे पाटने और उधर सहारा के रेगिसतान में पानी भरकर समुद्र बनाने की प्रेरणा होती है। इधर स्वेज नहर खोदूं, उधर पनामा नहर बनाऊं, ऐसी उधेड़-बुन शुरू होती है। जोड़-तोड़ के सिवा चैन नहीं पड़ता। छोटा बच्चा जैसे कपडों की धज्जी को लेकर उसे फाड़ता है, फिर कुछ बनाता है, ऐसी ही यह क्रिया है। इसमें वह मिलाओ, उसमें यह मिलाओ; उसे डुबाओ, इसे उड़ाओ, ऐसे ये अनंत खेल रजोगुण के होते हैं। पक्षी आकाश में उड़ता है, हम भी आकाश में क्यों न उड़ें? मछली पानी में रहती है, हम भी पनडुब्बी बनाकर जल में क्यों न रहें? इस तरह, नर-देह में आकर पक्षियों और मछलियों की बराबरी करने में उसे कृतार्थता मालूम होती है।
परकाया-प्रवेश की तथा दूसरी देहों के आश्चर्यों का अनुभव करने की हवस उसे नर-देह में सूझती है। कोई कहता है- ‘चलो, मंगल की सैर कर आयें और वहाँ की आबादी देख आयें’ चित्त सतत भ्रमण करता रहता है, मानो अनेक वासनाओं का भूत ही हमारे शरीर में बैठ गया है। जो जहाँ है, वह वहाँ देखा ही नहीं जाता। उथल-पुथल होनी चाहिए। उसे लगता है- मैं इतना बड़ा मनुष्य, मेरे जीवित रहते यह सृष्टि जैसी-की-तैसी कैसे रहे? किसी पहलवान के शरीर में मस्ती चढ़ती है। उसे उतारने के लिए वह कभी दीवार से टक्कर लेता है, तो कभी पेड़ को धक्का मारता है। रजोगुण की ऐसी ही ऊर्मियां होती हैं। इनके प्रभाव में आकर मनुष्य धरती को गहरा खोदता है; उसके पेट में से कुछ पत्थर निकालता है और उन्हें वह हीरा, माणिक, जवाहर नाम देता है। इसी तरह उमंग के वशीभूत होकर वह समुद्र में गोता लगाता है और उसकी तली का कूड़ा-करकट ऊपर लाकर उसे ‘मोती’ नाम देता है। मोती में छेद नहीं होता, फिर उसमें छेद करता है। अब ये मोती पहने कहां? तो सुनार से नाक-कान छिदवाता है। मनुष्य यह सब उखाड़-पछाड़ क्यों करता है? यह सारा रजोगुण प्रभाव है।
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