गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 155

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तेरहवां अध्याय
आत्मानात्म-विवेक
73. परमात्म-शक्ति का उत्तरोत्तर अनुभव

27. इसके बाद की सीढ़ी है- परमेश्वर के कृपा-प्रसाद से कर्म का जो फल मिले, उसे स्वयं न लेकर उसी को अर्पण कर देना। इस भूमिका में जीव परमेश्वर से कहता है- "तेरे ये फल तू ही ले।" नामदेव धरना देकर बैठ गया कि "प्रभु, तुझे दूध पीना ही पड़ेगा।" कितना मधुर प्रसंग है! वह सारा कर्मफलरूपी दूध नामदेव भगवान को अर्पण कर रहा है। इस तरह जीवन की सारी पूंजी, सारी कमाई जिस परमात्मा की कृपा से प्राप्त हुई, उसी को वह समर्पित करनी है। धर्मराज स्वर्ग में चरण रखने वाले ही थे कि उनके साथ के कुत्ते को आगे नहीं जाने दिया गया। तब उन्होंने अपने सारे जीवन का पुण्यफल - स्वर्गलाभ - एक क्षण में छोड़ दिया। इसी तरह भक्त भी सारा फल-लाभ तत्काल ईश्वरार्पण कर देता है। ‘उपद्रष्टा’, ‘अनुमंता’‚ ‘भर्ता’- इन स्वरूपों में प्रतीत होने वाला परमात्मा अब ‘भोक्ता’ हो जाता है। अब जीव उस भूमिका में आ जाता है, जब परमात्मा ही इस शरीर में भोगों को भोगता है।

28. इसके बाद संकल्प करना भी छोड़ देना है। कर्म में तीन सीढ़ियां आती हैं। पहले हम संकल्प करते हैं, फिर कार्य करते हैं और बाद में फल आता है। कर्म के लिए प्रभु की सहायता लेकर जो फल मिला, वह भी उसी को अर्पण कर दिया। कर्म करने वाला परमेश्वर, फल चखने वाला भी परमेश्वर! अब उस कर्म का संकल्प करने वाला भी परमेश्वर ही हो जाने दो। इस प्रकार कर्म के आदि, मध्य और अंत में सर्वत्र प्रभु को ही रहने दो। ज्ञानदेव ने कहा है-

माळीये जेउतें नेलें। तेउतें निवांत चि गेलें।
तया पाणिया ऐसें केलें। होआवें गा।

-'माली जिधर ले जाये, उधर ही चुपचाप चले जाने वाले पानी की तरह बनो।' माली पानी को जिधर ले जाना चाहता है, उधर ही वह बिना चीं-चपड़ किये चला जाता है। माली की पसंद के फल-फूल के पौधों को पानी पोसता और बढ़ाता है। इसी तरह मेरे हाथों जो होना है, वह उसी को तय करने दो। अपने चित्त के सभी संकल्पों की जिम्मेदारी मुझे उसी पर सौंपने दो। यदि मैंने अपना सारा बोझ घोड़े पर डाल ही दिया है, तो बाकी बोझा मैं अपने सिर पर क्यों लादकर बैठूं? वह भी घोड़े की पीठ पर ही क्यों न लाद दूं? अपने सिर पर बोझ रखकर भी यदि मैं घोड़े पर बैठूंगा, तो भी बोझ घोड़े पर ही पड़ेगा, फिर सारा ही बोझ उसकी पीठ पर क्यों न लाद दूं? इस तरह जीवन की सभी हलचल, नाच-कूद, फूलना-फुलाना, सब कुछ कराने वाला अंत में परमात्मा ही हो जाता है। मेरे जीवन का वह ‘महेश्वर’ ही बन जाता है। इस तरह विकास होते-होते सारा जीवन ही परमेश्वरमय हो जाता है, केवल देह का पर्दा ही बाकी रहता है। वह हटते ही जीव और शिव, आत्मा और परमात्मा एक हो जाते हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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