गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 154

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तेरहवां अध्याय
आत्मानात्म-विवेक
73. परमात्म-शक्ति का उत्तरोत्तर अनुभव

26. पहले परमेश्वर दूर खड़ा था। गुरु जिस तरह शिष्य से यह कहकर कि 'सवाल हल करो' दूर खड़ा रहता है, उसी तरह जब तक जीव भोगमय जीवन में लिप्त रहता है, तब तक परमात्मा दूर खड़ा रहता है। वह कहता है- 'ठीक है, मारने दो हाथ-पैर।' फिर जीव नैतिक भूमिका में आता है। तब परमात्मा केवल तटस्थ नहीं रहता। जीवन के हाथ से सत्कर्म हो रहा है, ऐसा देखते ही भगवान धीरे-से झांकता है और कहता है- 'शाबाश!' इस तरह सत्कर्म होते-होते जब चित्त के स्थूल मैल धुल जाते हैं, सूक्ष्म मैल का धुलने का समय आता है और जब उसके सारे प्रयत्न थकने लगते हैं, तब वह परमात्मा को पुकारता है और वह 'आया' कहकर दौड़ आता है। भक्त का उत्साह कम पड़ते ही वह वहाँ आ खड़ा होता है।

जगत् का सेवक सूर्यनारायण आपके द्वारा पर सदैव खड़ा ही है। बंद द्वार को तोड़कर सूर्य भीतर नहीं घुसेगा, क्योंकि वह सेवक है। वह स्वामी की मर्यादा का पालन करता है। वह दरवाजे को घक्का नहीं देता। भीतर मालिक सोया है, इसलिए सूर्यरूपी सेवक दरवाजे के बाहर खड़ा रहता है। जरा-सा दरवाजा खोलते ही वह सारा-का सारा प्रकाश लेकर भीतर घुस आता है और अंधेरा दूर कर देता है। परमात्मा भी ऐसा ही है। उससे मदद मांगी कि वह बांह फैलाकर आया ही। भीमा के किनारे (पंढरपुर में) कमर पर हाथ रखकर वह तैयार ही खड़ा है।

उभारूनि बाहे। विठो पालवीत आहे॥ (बांह उठाकर विठ्ठल बुला रहे हैं)। ऐसा वर्णन तुकाराम आदि ने किया है। नाक खुली रखी कि हवा भीतर घुसी। दरवाजा जरा-सा खोला कि प्रकाश भीतर आया। वायु और प्रकाश के दृष्टांत भी मुझे अधूरे मालूम होते हैं। उनकी अपेक्षा भी परमात्मा अधिक समीप, अधिक उत्सुक है। वह उपद्रष्टा, अनुमंता न रहकर 'भर्ता'- सब तरह सहायक- बनता है। मन की मलिनता मिटाने के लिए असहाय होकर जब हम पुकारते हैं- मारी नाड तमारे हाथे हरि संभाळजो रे; हम प्रार्थना करते हैं- तू ही एक मेरा मददगार है, तेरा आसरा मुझको दरकार है; तब फिर वह दयाधन कैसे दूर रहेगा? भक्त की सहायता करने वाला वह भगवान, अधूरे को पूरा करने वाला वह प्रभु, दौड़ पड़ता है। तब वह रैदास के चमड़े धोता है, सजन कसाई का मांस बेचता है, कबीर की चादर बुनता है और जनाबाई के साथ चक्की पीसता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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