गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 150

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तेरहवां अध्याय
आत्मानात्म-विवेक
71. जालिम की सत्ता समाप्त

17. जब तक हम यह नहीं समझ लेंगे कि देह से मैं अलग हूं, तब तक जालिम लोग, हम पर जरूर जुल्म ढाते रहेंगे, हमें बंदा, ‘गुलाम’ बनाते रहेंगे, हमें बेहाल कर डालेंगे। भय के कारण ही जुल्म शक्य [1] होता है।

एक राक्षस ने एक आदमी को पकड़ रखा था। वह उससे बराबर काम लेता रहता था। जब कभी वह काम न करता, तो राक्षस कहता- 'खा जाऊंगा, तुझे चट् कर डालूंगा।' शुरू में तो वह मनुष्य डरता रहा, परंतु जब वह धमकी असह्य हो गयी, तो उसने कहा- ' ले खा डाल। खाना हो तो खा जा।' पर राक्षस उसे थोड़े ही खा जानेवाला था। उसे एक बंदा, गुलाम चाहिए था। खा जाने पर उसका काम कौन करता? वह तो सिर्फ उसे खा जाने की धमकी दिया करता था, परंतु ज्यों ही यह जवाब मिला 'ले, खा जा', त्यों ही उसका जुल्म बंद हो गया।

जालिम लोग यह जानते हैं कि ये लोग देह से चिपके रहने वाले हैं। इनकी देह को कष्ट पहुँचा कि ये गुलाम बने। परंतु जहाँ आपने देह की आसक्ति छोड़ दी तुरंत सम्राट बन जायेंगे। सारा सामर्थ्य आपके हाथ में आ जायेगा। फिर आप पर किसी का हुक्म नहीं चलेगा। जुल्म करने का आधार ही टूट जायेगा। उसकी बुनियाद ही इस भावना पर है कि 'देह मैं हूँ।' वे समझते हैं कि इनकी देह को सताया कि ये वश में आये। इसीलिए वे धमकी की भाषा बोलते हैं।

18. 'मैं देह हूं'- मेरा इस भावना के कारण ही दूसरों को मुझ पर जुल्म करने की सताने की इच्छा होती है। परंतु इंग्लैण्ड के शहीद क्रेन्मर ने क्या कहा था? "मुझे जलाते हो। अच्छा जला डालो। लो, पहले यह दाहिना हाथ जलाओ।" इसी तरह रिड्ले और लॅटिमर ने कहा था- "तुम जलाना चाहते हो? हमें कौन जला सकता है? हम तो धर्म की ऐसी ज्योति जला रहे हैं कि उसे कोई बुझा नहीं सकता। शरीररूपी इस मोमबत्ती को, इस चरबी को जलाकर सत तत्त्वों की ज्योति जलाये रखना तो हमारा काम ही है। देह मिट जायेगी, वह तो मिटने वाली ही है।"

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सरलता से करने योग्य

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गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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