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तेरहवां अध्याय
आत्मानात्म-विवेक
69. देहासक्ति से जीवन अवरुद्ध
13. सारांश, यह देह साध्य नहीं, साधन है। यदि हमारा यह भाव दृढ़ हो जाये, तो फिर शरीर का जो वृथा आडंबर रचा जाता है, वह न रहेगा। जीवन हमें निराले ही ढंग का दीखने लगेगा। फिर इस देह को सजाने में हमें गौरव का अनुभव नहीं होगा। वस्तुतः इस देह के लिए एक सादा कपड़ा काफी है। पर नहीं, हम चाहते हैं वह नरम हो, मुलायम हो, उसका बढ़िया रंग हो, सुंदर छपाई हो, अच्छे किनारे-बेल-बूटे हों, कलाबत्तू हो आदि। उसके लिए हम अनेक लोगों से तरह-तरह की मेहनत कराते हैं।'
यह सब क्यों? उस भगवान को क्या अक्ल नहीं थी? यदि इस देह के लिए सुंदर बेल-बूटों और नक्काशी की जरूरत होती, तो जैसे बाघ के शरीर पर उसने धारियां डाल दी हैं, वैसे क्या तुम्हारे हमारे शरीर पर नहीं डाल देता? उसके लिए क्या यह असंभव था? वह मोर की तरह सुंदर पिच्छ हमें भी लगा सकता था; परंतु ईश्वर ने मनुष्य को एक ही रंग दिया है। उसमें जरा-सा दाग पड़ जाता है, तो उसका सौंदर्य नष्ट हो जाता है। मनुष्य जैसा है वैसा ही सुंदर है।
परमेश्वर का यह उद्देश्य ही नहीं है कि मनुष्य देह को सजाया जाये। सृष्टि में क्या सामान्य सौंदर्य है? मनुष्य का काम इतना ही है कि वह अपनी आंखों से इसे निहारता रहे; परंतु वह रास्ता भूल गया है। कहते हैं कि जर्मनी ने हमारे रंग को मार दिया। अरे भाई, तुम्हारे मन का रंग तो पहले ही मर चुका, बाद में तुम्हें इस बनावटी रंग का शोक लगा! उसी के लिए तुम परावलंबी हो गये। व्यर्थ ही तुम इस शरीर-श्रृंगार के चक्कर में पड़ गये। मन को सजाना, बुद्धि का विकास करना, हृदय को सुंदर बनाना तो एक तरफ ही रह गया।
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