गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 136

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बारहवां अध्याय
सगुण-निर्गुण-भक्ति
63. दोनों परस्पर पूरक: राम-चरित्र के दृष्टांत

21. भरत निर्गुण भक्ति करने वाला था। उसका भी चित्र तुलसीदासजी ने सुंदर खींचा है। राम वन को गये‚ तब भरत अयोध्या में नहीं था। जब भरत आया‚ तब दशरथ मर चुके थे। गुरु वसिष्ठ उसे समझा रहे थे कि "तुम राज चलाओ।" भरत ने कहा- "मुझे राम से भेंट करनी चाहिए।" राम से मिलने के लिए वह भीतर से छटपटा रहा था; परंतु साथ ही राज्य का प्रबंध भी वह कर रहा था। उसकी भावना यह थी कि यह राज्य राम का है, इसका प्रबंध करना- यह राम का ही काम करने जैसा है। सारी संपत्ति उस मालिक की है, उसकी व्यवस्था करना उसे अपना कर्त्तव्य मालूम होता था। लक्ष्मण की तरह भरत मुक्त नहीं हो सकता था। यह भरत की भूमिका है। राम की भक्ति का अर्थ है‚ राम का काम करना‚ नहीं तो वह भक्ति किस काम की? राज-काज की सारी व्यवस्था करके भरत राम से भेंट करने वन में आया है। "भैया‚ यह आपका राज्य है। आप......" इतना ज्यों ही वह कहता है‚ त्यों ही राम उससे कहते हैं‚ "भरत‚ तुम्ही राज-काज चलाओ।" भरत संकोच में खड़ा रहता है। वह कहता है‚ "आपकी आज्ञा सिर-आंखों पर।" राम जो कहें‚ सो मंजूर। उसने अपना सब कुछ राम पर निछावर कर रखा था।

22. भरत गया और राज-काज चलाने लगा; परंतु देखो कैसा अजीब दृश्य है कि अयोध्या से दो मील की दूरी पर वह तपस्या करता रहा। तपस्वी रहकर उसने राज-काज चलाया। अंत में राम जब भरत से मिले‚ तब यह पहचानना मुश्किल हो गया कि वन में रहकर तप करने वाला असली तपस्वी कौन है? दोनों के एक से चेहरे‚ उसमें थोड़ा-सा फर्क‚ मुख मुद्रा पर वही तपस्या के चिह्न‚ दोनों को देखकर पहचाना नहीं जाता कि इनमें राम कौन और भरत कौनǃ इस तरह का चित्र यदि कोई निकाले‚ तो वह कितना पावन चित्र होगाǃ इस तरह भरत यद्यपि शरीर से राम से दूर था, तो भी मन से वह क्षण भर के लिए भी दूर नहीं था। एक ओर वह राजकाज चला रहा था, तो मन से वह राम के पास ही था। निर्गुण में सगुण भक्ति खचाखच भरी रहती है। अतः वहाँ वियोग की भाषा मुंह से निकले ही कैसे? इसलिए भरत को राम का वियोग नहीं लगता था। वह अपने प्रभु का कार्य कर रहा था।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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