बारहवां अध्याय
सगुण-निर्गुण-भक्ति
63. दोनों परस्पर पूरक: राम-चरित्र के दृष्टांत
21. भरत निर्गुण भक्ति करने वाला था। उसका भी चित्र तुलसीदासजी ने सुंदर खींचा है। राम वन को गये‚ तब भरत अयोध्या में नहीं था। जब भरत आया‚ तब दशरथ मर चुके थे। गुरु वसिष्ठ उसे समझा रहे थे कि "तुम राज चलाओ।" भरत ने कहा- "मुझे राम से भेंट करनी चाहिए।" राम से मिलने के लिए वह भीतर से छटपटा रहा था; परंतु साथ ही राज्य का प्रबंध भी वह कर रहा था। उसकी भावना यह थी कि यह राज्य राम का है, इसका प्रबंध करना- यह राम का ही काम करने जैसा है। सारी संपत्ति उस मालिक की है, उसकी व्यवस्था करना उसे अपना कर्त्तव्य मालूम होता था। लक्ष्मण की तरह भरत मुक्त नहीं हो सकता था। यह भरत की भूमिका है। राम की भक्ति का अर्थ है‚ राम का काम करना‚ नहीं तो वह भक्ति किस काम की? राज-काज की सारी व्यवस्था करके भरत राम से भेंट करने वन में आया है। "भैया‚ यह आपका राज्य है। आप......" इतना ज्यों ही वह कहता है‚ त्यों ही राम उससे कहते हैं‚ "भरत‚ तुम्ही राज-काज चलाओ।" भरत संकोच में खड़ा रहता है। वह कहता है‚ "आपकी आज्ञा सिर-आंखों पर।" राम जो कहें‚ सो मंजूर। उसने अपना सब कुछ राम पर निछावर कर रखा था। 22. भरत गया और राज-काज चलाने लगा; परंतु देखो कैसा अजीब दृश्य है कि अयोध्या से दो मील की दूरी पर वह तपस्या करता रहा। तपस्वी रहकर उसने राज-काज चलाया। अंत में राम जब भरत से मिले‚ तब यह पहचानना मुश्किल हो गया कि वन में रहकर तप करने वाला असली तपस्वी कौन है? दोनों के एक से चेहरे‚ उसमें थोड़ा-सा फर्क‚ मुख मुद्रा पर वही तपस्या के चिह्न‚ दोनों को देखकर पहचाना नहीं जाता कि इनमें राम कौन और भरत कौनǃ इस तरह का चित्र यदि कोई निकाले‚ तो वह कितना पावन चित्र होगाǃ इस तरह भरत यद्यपि शरीर से राम से दूर था, तो भी मन से वह क्षण भर के लिए भी दूर नहीं था। एक ओर वह राजकाज चला रहा था, तो मन से वह राम के पास ही था। निर्गुण में सगुण भक्ति खचाखच भरी रहती है। अतः वहाँ वियोग की भाषा मुंह से निकले ही कैसे? इसलिए भरत को राम का वियोग नहीं लगता था। वह अपने प्रभु का कार्य कर रहा था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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