गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 134

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बारहवां अध्याय
सगुण-निर्गुण-भक्ति
63. दोनों परस्पर पूरक: राम-चरित्र के दृष्टांत

17. सगुण सुलभ और सुरक्षित है। परंतु सगुण को निर्गुण की आवश्यकता है। सगुण के विकास के लिए उसमें निर्गुणरूपी‚ तत्त्वनिष्ठारूपी बौर आना चाहिए। निर्गुण-सगुण परस्पर पूरक हैं‚ परस्पर विरुद्ध नहीं। सगुण से निर्गुण तक मंजिल तय करनी चाहिए और निर्गुण को भी चित्त के सूक्ष्म मैल धोने के लिए सगुण की आर्द्रता चाहिए। दोनों एक-दूसरे के कारण सुशोभित हैं।

18. यह दोनों प्रकार की भक्ति रामायण में बड़े ढंग से दिखायी गयी है। अयोध्या कांड में भक्ति के दोनों प्रकार आये हैं। इन्हीं दो भक्तियों का विस्तार रामायण में है। भरत की भक्ति पहले प्रकार की है और लक्ष्मण की दूसरे प्रकार की। इनके उदाहरण से निर्गुण-भक्ति और सगुण-भक्ति का स्वरूप समझ में आ जायेगा।

19. राम जब वनवास के लिए निकले तो वे लक्ष्मण को अपने साथ ले जाने के लिए तैयार नहीं थे। राम को उन्हें साथ ले जाने की कोई जरूरत नहीं मालूम होती थी। उन्होंने लक्ष्मण से कहा- "लक्ष्मण‚ मैं वन में जा रहा हूँ। मुझे पिताजी की ऐसी ही आज्ञा है। तुम घर पर रहो। मेरे साथ चलकर दुःखी माता-पिता को और अधिक दुःखी न बनाओ। माता-पिता की और प्रजा की सेवा करो। तुम उनके पास रहोगे, तो मैं निश्चिंत रहूंगा। तुम मेरे प्रतिनिधि के तौर पर रहो। मैं वन में जा रहा हूँ। इसका अर्थ यह नहीं कि किसी संकट में पड़ रहा हूँ। बल्कि ऋषियों के आश्रम में जा रहा हूँ।" इस तरह राम लक्ष्मण को समझा रहे थे; परंतु लक्ष्मण ने राम की सारी बातें एक ही झटके में उड़ा दीं। एक घाव दो टुकड़ेǃ तुलसीदास जी ने इसका बढ़िया चित्र खींचा है। लक्ष्मण कहते हैं– "आपने मुझे उत्कृष्ट निगम नीति बतायी है। वास्तव में मुझे इसका पालन भी करना चाहिए; परंतु यह राजनीति का बोझ मुझसे नहीं उठ सकेगा। आपके प्रतिनिधि होने की शक्ति मुझमें नहीं। मैं तो बालक हूँ।

दीन्हि मोहि सिख नीकि गोसाईं। लागि अगम अपनी कदराईं॥
नरबर धीर धरम-धुर-धारी। निगम-नीति कहुं ते अधिकारी॥
मैं सिसु प्रभु-सनेह-प्रतिपाला। मंदरु-मेरु कि लेहिं मराला॥

हंस क्या मेरु मंदर का भार उठा सकता है? भैया राम‚ मैं तो आज तक आपके प्रेम से पला-पुसा हूँ। आप यह राजनीति किसी दूसरे को सिखाइए। मैं तो एक बालक हूँ।" यह कहकर लक्ष्मण ने सारी बात खत्म कर डाली।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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