गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 130

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बारहवां अध्याय
सगुण-निर्गुण-भक्ति
61. सगुण सुलभ और सुरक्षित

10. निगुर्ण उपासक सर्वभूतहित-रत होता है। यह कोई मामूली बात नहीं है। ‘सारे विश्व का कल्याण करना’ कहने में सरल है; पर करना बहुत कठिन है। जिसे समग्र विश्व के कल्याण की चिंता है‚ वह चिंतन के सिवा दूसरा कुछ नहीं कर सकेगा। इसीलिए निर्गुण-उपासना कठिन है। सगुण-उपासना अपनी-अपनी शक्ति के अनुसार अनेक प्रकार से की जा सकती है। जहाँ हमारा जन्म हुआ‚ उस छोटे से देहात की सेवा करना अथवा मां-बाप की सेवा करना सगुण-पूजा है। इसमें केवल इतना ही ध्यान रखना है कि हमारी यह सेवा जगत् के हित की विरोधी न हो। आपकी सेवा कितनी ही छोटी क्यों न हो‚ वह यदि दूसरों के हित में बाधा न डालती हो‚ तो अवश्य भक्ति की श्रेणी में पहुँच जायेगी‚ नहीं तो वह सेवा आसक्ति का रूप ग्रहण कर लेगी। मां-बाप हों‚ मित्र हों‚ दुःखी बंधु-बांधव हों‚ साधु-संत हों‚ उन्हें ही परमेश्वर समझकर सेवा करनी चाहिए। इस सबमें परमेश्वर की मूर्ति की कल्पना करके संतोष मानों। यह सगुण-पूजा सुलभ है; परंतु निर्गुण-पूजा कठिन है। यों दोनों का अर्थ एक ही है। सुलभता की दृष्टि से सगुण श्रेयस्कर है‚ बसǃ

11. सुलभता के अलावा एक और भी मुद्दा है। निगुर्ण-उपासना में भय है। निर्गुण ज्ञानमय है। सगुण प्रेममय‚ भावनामय है। सगुण में आर्द्रता है। उसमें भक्त अधिक सुरक्षित है। निर्गुण में कुछ खतरा है। एक समय ऐसा था‚ जब ज्ञान पर मैं अधिक निर्भर था; परंतु अब मुझे ऐसा अनुभव हो गया है कि केवल ज्ञान से मेरा काम नहीं चलता। ज्ञान से मन का स्थूल मैल जलकर भस्म हो जाता है; परंतु सूक्ष्म मैल को मिटाने का सामर्थ्य उसमें नहीं है। स्वावलंबन‚ विचार‚ विवेक‚ अभ्यास‚ वैराग्य- इन सभी साधनों को लें तो भी इनके द्वारा मन के सूक्ष्म मैल नहीं मिट सकते। भक्ति रूपी पानी की सहायता के बिना ये मैल नहीं धुल सकते। भक्ति रूपी पानी में ही यह शक्ति है। इसे आप चाहें तो परावलंबन कर दीजिए। परंतु ‘पर’ का अर्थ ‘दूसरा’ न करके ‘वह श्रेष्ठ परमात्मा’ कीजिए और उसका अवलंबन- ऐसा अर्थ ग्रहण कीजिए। परमात्मा का आधार लिये बिना चित्त के मैल नष्ट नहीं होते।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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