गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 13

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दूसरा अध्याय
सब उपदेश थोड़े में: आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि
7. जीवन-सिद्धान्त: (2) देहातीत आत्मा का भान

10. लेकिन हम देह को साधन-रूप से काम में न लाकर उसी में डूब जाते हैं और आत्मसंकोच कर लेते हैं। इससे यह देह जो पहले से ही नगण्य है, और भी अधिक क्षुद्र बन जाती है। इसलिए संतजन जोर देकर कहते हैं- देह आणि देह सम्बन्धें निंदावीं। इतरें वंदावीं श्वानसूकरें॥ ‘देह और देह-सम्बन्ध निंद्य है। अन्य श्वान, सूकर आदि भी वंद्य है।’ अरे, तू इस देह की और देह से जिनका सम्बन्ध आया है उन्हीं की, दिन-रात पूजा मत कर। दूसरों को भी पहचानना सीख। संत इस प्रकार हमें व्यापक होने की सीख देते हैं। हम अपने आप्त-इष्ट-मित्रों के अतिरिक्त दूसरों के पास अपनी आत्मा जरा ले जाते हैं क्या? जीव जीवांत घालावा। आत्मा आत्म्यांत मिसळावा। ‘‘जीव में जीव उंड़ेलें। आत्मा से आत्मा मिलायें’- ऐसा हम करते हैं क्या? अपने आत्म हंस को इस पिंजरे बाहर की हवा खिलाते हैं क्या? - क्या कभी मन में ऐसा आता है कि ‘अपने माने हुए दायरे को पार कर कल मैंने नये दस मित्र बनाये, आज पंद्रह हुए, कल पचास होंगे, और ऐसा करते-करते एक दिन सारा विश्व ही मेरा और मैं विश्व का, इस प्रकार अनुभव करने लगूंगा।’ हम जेल से अपने नाते-रिश्तेदारों को पत्र लिखते हैं, इसमें क्या विशेषता है? किन्तु जेल से छूटे हुए किसी नये मित्र- राजनैतिक कैदी नहीं, चोर कैदी को पत्र लिखेंगे क्या?

11.हमारी आत्मा व्यापक होने के लिए छटपटाती रहती है। वह चाहती है कि सारे जगत को गले लगा लें। परन्तु हम उसे बन्द कर देते हैं। आत्मा को हमने कैद कर रखा है। उसकी याद भी हमें नहीं होती। सबेरे से लेकर शाम तक हम देह की सेवा में लगे रहते हैं। दिन-रात यही विचार कि मेरा यह शरीर कितना मोटा हुआ या कितना दुबला हो गया, मानों संसार में कोई दूसरा आनंद ही नहीं रह गया! भोग और स्वाद का आनन्द तो पशु भी लेते हैं। अब त्याग का और स्वाद तोड़ने का आनन्द भी लोगे या नहीं? स्वयं भूख से पीड़ित होते हुए भी भरी थाली दूसरे भूखे मनुष्य को दे देने मे जो आनन्द है, उसका अनुभव करो। उसके स्वाद को चखो। मां जब बच्चे के लिए कष्ट उठाती है, तब उसे इस मिठास का थोड़ा-सा स्वाद चखने को मिलता है। मनुष्य ‘अपना’ कहकर जो संकुचित दायरा बनाता रहता है, उसमें भी उसका उद्देश्य अनजाने यह रहता है कि वह आत्म विकास का स्वाद चखे; क्योंकि देहबद्ध आत्मा कुछ देर के लिए थोड़ी उससे बाहर निकलती है। परन्तु यह बाहर आना किस प्रकार का है? ठीक वैसा जैसा कि जेल की कोठरी के कैदी का काम के बहाने जेल के अहाते में आना। परन्तु आत्मा का काम इतने से नहीं चलता। आत्मा को तो मुक्तानंद चाहिए।

12. सारांश (1) साधक को चाहिए कि वह अधर्म और परधर्म के टेढ़े रास्ते को छोड़कर स्वधर्म का सहज और सरल मार्ग पकड़े। स्वधर्म का पल्ला वह कभी न छोड़े। (2) देह क्षणभंगुर है।, यह समझकर उसका उपयोग स्वधर्म के लिए ही करें। जब आवश्यकता हो, तो उसे स्वधर्म के लिए त्यागने में भी संकोच न करे। (3) आत्मा की अखंडता और व्यापकता का भान सतत जागृत रखे और चित्त से ‘स्व’-‘पर’ के भेद को निकाल डाले। जीवन के ये मुख्य सिद्धान्त भगवान बताते हैं। जो मनुष्य इनके अनुसार आचरण करेगा, वह निस्संदेह एक दिन नरदेहाचेनि साधनें, सच्चिदानंद-पदवी घेणें- नर देहरूपी साधन के द्वारा सच्चिदानंद पद के अनुभव को प्राप्त करेगा।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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