गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 129

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बारहवां अध्याय
सगुण-निर्गुण-भक्ति
61. सगुण सुलभ और सुरक्षित

8. सगुण भक्ति-योग में प्रत्यक्ष इंद्रियों से काम लिया जा सकता है। इंद्रियां साधन हैं‚ विघ्नरूप हैं‚ या दोनों हैं। वे मारक हैं या तारक- यह देखने वाले की दृष्टि पर अवलंबित है। मान लो कि किसी की मां मृत्यु पर पड़ी हुई है और वह उससे मिलना चाहता है। दोनों के बीच पंद्रह मील का रास्ता है। उस पर मोटर नहीं जा सकती। टूटी-फूटी पगडंडी है। ऐसे समय यह रास्ता साधन है या विघ्न? कोई कहेगा- "कहां का यह मनहूस रास्ता बीच में आ गया‚ यह दूरी न होती तो मैं कब का मां से जाकर मिल लेताǃ" ऐसे व्यक्ति के लिए वह रास्ता शत्रु है। किसी तरह रास्ता काटते हुए वह जाता है। वह रास्ते को कोस रहा है। परंतु मां को देखने के लिए उसे हर हालत में जल्दी–जल्दी कदम उठाकर जाना जरूरी है। रास्ते को शत्रु समझकर वह वहीं नीचे बैठ जायेगा‚ तो दुश्मन जान पड़ने वाले उस रास्ते की विजय हो जोयगी। वह सरपट चलकर ही उस शत्रु को जीत सकता है। दूसरा व्यक्ति कहेगा- "यह जंगल है‚ फिर भी इसमें से होकर जाने का रास्ता तो बना हुआ है‚ यही गनीमत है। किसी तरह मां तक जा पहुँचूंगा। यह न होता‚ तो इस दुर्गम पहाड़ पर से कैसे आगे जा पाता?" यह कहकर वह उस पगडंडी को एक साधन समझता हुआ तेजी से आगे कदम बढ़ाता जाता है। रास्ते के प्रति उसके मन में स्नेह भाव होगा‚ उसे वह मित्र मानेगा। अब आप उस रास्ते को चाहे मित्र मानिए या शत्रु‚ अंतर बढ़ाने वाला कहिए या अंतर कम करने वाला‚ जल्दी-जल्दी कदम तो आपको उठाना ही होगा। रास्ता विघ्नरूप है या साधन रूप‚ यह तो मनुष्य के चित्त की भूमिका पर, उसकी दृष्टि पर अवलंबित है। यही बात इंद्रियों की है। वे विघ्न रूप हैं या साधन रूप हैं, यह आपकी अपनी दृष्टि पर निर्भर करता है।

9. सगुण उपासक के लिए इंद्रियां साधन हैं। इंद्रियां मानो पुष्प हैं; उन्हें परमात्मा को अर्पित करना है। आंखों से हरि का रूप देखें‚ कानों से हरि-कथा सुनें‚ जीभ से हरि-नाम का उच्चारण करें, पांवों से तीर्थ यात्रा करें और हाथों से सेवा-कार्य करें- इस तरह समस्त इंद्रियों को वह परमेश्वर को अर्पण कर देता है। इंद्रियाँ भोग के लिए नहीं रह जातीं। पुष्प तो भगवान पर चढ़ाने के लिए होते हैं। फूलों की माला स्वयं अपने गले में डालने के लिए नहीं होती। इसी तरह इंद्रियों का उपयोग ईश्वर की सेवा के लिए करना है। यह हुई सगुणोपासक की दृष्टि; परंतु निर्गुणोपासक को इंद्रियां विघ्न रूप मालूम होती हैं। वह उन्हें संयम में रखता है‚ बंद करके रखता है। उनका आहार बंद कर देता है। उन पर पहरा बैठा देता है। सगुणोपासक को यह सब कुछ नहीं करना पड़ता। वह सब इंद्रियों में चढ़ा देता है। ये दोनों विधियां इंद्रिय-निग्रह की ही हैं- इंद्रियदमन के ही ये दोनों प्रकार हैं। आप किसी भी विधि को लेकर चलिए‚ परंतु इंद्रियों को अपने काबू में रखिए। ध्येय दोनों का एक ही है‚ इंद्रियों को विषयों में भटकने न देना। एक विधि सुलभ है‚ दूसरी कठिन है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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