गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 127

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बारहवां अध्याय
सगुण-निर्गुण-भक्ति
60. सगुण उपासक और निर्गुण उपासकः मां के दो पुत्र

3. अब बारहवें अध्याय में भक्ति तत्त्व की समाप्ति करनी है। अर्जुन ने समाप्ति संबंधी प्रश्न पूछा। पांचवें अध्याय में जीवन-संबंधी पूरे शास्त्र का विचार समाप्त होते समय जैसा प्रश्न अर्जुन ने पूछा था‚ वैसा ही यहाँ भी पूछा है। अर्जुन पूछता है- "भगवन‚ कुछ लोग सगुण का भजन करते हैं‚ और कुछ निर्गुण की उपासना करते हैं। तो अब बताओ कि इन दोनों में कौन-सा भक्त आपको प्रिय है?"

4. भगवान इसका क्या उत्तर दें? किसी मां के दो बच्चे हों और उससे उनके बारे में प्रश्न किया जाये; वैसा ही यह है। दो में एक बच्चा छोटा हो‚ वह मां को बहुत प्यार करता हो‚ मां को देखते ही आनंदित होता हो और मां के जरा दूर जाते ही व्याकुल होता हो‚ वह मां से दूर जा ही नहीं सकता‚ उसे छोड़ नहीं सकता‚ उसका वियोग वह सहन नहीं कर सकता। मां न हो‚ तो उसे सारा संसार सूना ǃ ऐसा यह छोटा है। दूसरा बच्चा बड़ा है। वह भी है तो उसी तरह प्रेम-भाव से सराबोर‚ पर समझदार हो गया है। मां से दूर रह सकता है। साल-छह मास भी मां के दर्शन न हो‚ तो भी वह रह सकता है। वह मां की सेवा करने वाला है। सारा बोझ अपने सिर पर लेकर काम करता है। काम-काज में लग जाने से मां का विछोह सह सकता है। लोगों में उसकी प्रतिष्ठा है और चारों ओर उसका नाम सुनकर मां को बड़ा सुख मिलता है। ऐसा यह दूसरा बेटा है। ऐसे दो बेटों के बारे में मां से कहिए- "मांǃ इन दो बेटों में से एक ही बेटा आपको दिया जायेगा। आप जिसे चाहें पसंद करेंǃ" तो वह क्या उत्तर देगी? किस बेटे को पसंद करेगी? क्या वह दोनों बेटों को तराजू में रखकर तौलने बैठेगी? माता की भूमिका पर ध्यान दीजिए। उसका स्वाभाविक उत्तर क्या होगा? वह निरुपाय होकर कहेगी- "यदि बिछोह ही होना है, तो बड़े बेटे का वियोग मैं सह लूंगी।" छोटे बेटे को उसने छाती से लगाया है। उसे वह अपने से दूर नहीं कर सकती। छोटे बेटे के विशेष आकर्षण को देखकर "बड़ा बेटा दूर जाये तो भी चलेगा" ऐसा कुछ तो भी जवाब वह देगी। परंतु उसे अधिक प्रिय कौन है‚ इस प्रश्न का यह उत्तर नहीं कहा जा सकता। कुछ-न-कुछ उत्तर देना है इसलिए दो–चार शब्द वह बोल देगी; परंतु उन शब्दों को तोड़–मरोड़ करके अर्थ निकालने लगेंगे‚ तो वह ठीक नहीं होगा।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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