गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 125

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ग्यारहवां अध्याय
विश्वरूप-दर्शन
58. सर्वार्थ-सार

14. उस परमेश्वर के दिव्य रूप का जो वर्णन है‚ उसमें बुद्धि चलाने की मेरी इच्छा नहीं। उसमें बुद्धि चलाना पाप है। विश्व-रूप वर्णन के उन पवित्र श्लोकों को हम पढ़ें और पवित्र बनें। बुद्धि चलाकर परमेश्वर के उस रूप के टुकड़े किये जायें‚ यह मुझे नहीं भाता। वह अघोर उपासना हो जायेगी। अघोरपंथी लोग श्मशान में जाकर मुर्दे चीरते हैं और तंत्रोपासना करते हैं। वैसी ही वह क्रिया हो जायेगी। परमेश्वर का वह दिव्य रूप- विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतोमुखः विश्वतोबाहुरुत विश्वतस्पात्। ऐसा वह विशाल और अंतरूप ǃ उसके वर्णन के श्लोकों को गायें और गाकर उपना मन निष्पाप और पवित्र बनायें।

15. परमेश्वर के इस सारे वर्णन में केवल एक ही जगह बृद्धि विचार करने लगती है। परमेश्वर अर्जुन से कहते हैं- "अर्जुन‚ ये सब-के-सब मरने वाले हैं‚ तू निमित्त मात्र हो जा। सब कुछ करने वाला तो मैं हूँ।" यही ध्वनि मन में गूंजती रहती है। जब यह विचार मन में आता है कि हमें ईश्वर के हाथों का एक हथियार बनना है‚ तो बुद्धि सोचने लगती है कि ईश्वर के हाथ का औजार बनें कैसे? कृष्ण के हाथ की मुरली कैसे बनूं? वे अपने होंठ से मुझे लगा लें और मुझसे मधुर स्वर निकालें‚ मुझे बजाने लगें यह कैसे होगा? मुरली बनना यानि पोला बननाǃ पर मुझमें तो विकार और वासनाएं ठसाठस भरी हुई हैं‚ ऐसी दशा से मधुर स्वर कैसे निकलेगा? मेरा स्वर तो दबा हुआ निकलता है। मैं घन वस्तु हूँ। मझमें अहंकार भरा हुआ है। मुझे निरहंकार होना चाहिए। जब मैं पूर्ण रूप से मुक्त, पोला हो जाऊंगा‚ तभी परमेश्वर मुझे बजायेगा; परंतु परमेश्वर के होंठों की मुरली बनना बड़े साहस का काम है। यदि उसके पैरों की जूतियां बनना चाहूं‚ तो भी आसान नहीं है। परमेश्वर की जूती ऐसी मुलायम होनी चाहिए कि परमेश्वर के पांव में जरा-सा भी घाव न लगे। परमेश्वर के चरण और कांटे-कंकड़ के बीच मुझे पड़ना है। मुझे अपने को कमाना होगा। अपनी खाल उतारकर उसे सतत कमाते रहना होगा‚ मुलायम बनाना होगा। अतः परमेश्वर के पांवों की जूती बनना भी सरल नहीं है। परमेश्वर के हाथ का औजार बनना हो‚ तो मुझे दस सेर वजन का लोहे का गोला नहीं बनना चाहिए। तपश्चर्या की सान पर अपने को चढ़ाकर तेज धार बनानी होगी। ईश्वर के हाथ में मेरी जीवन रूपी तलवार चमकनी चाहिए। यह ध्वनि मेरी बुद्धि में गूंजती रहती है। भगवान के हाथ का एक औजार बनना है- इसी विचार में निमग्न हो जाता हूँ।


16. अब यह कैसे किया जाये‚ इसकी विधि स्वयं भगवान ने अंतिम श्लोक में बता दी है। श्रीशंकराचार्य ने अपने भाष्य में इस श्लोक को 'सर्वार्थ-सार'‚ सारी गीता का सार कहा है। वह कौन सा श्लोक है? वह है–

मत्कर्मकृमत्परमो मदभक्तः संगवर्जितः
निवैंरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पांडव॥

'हे पांडव‚ जो सब कर्म मुझे समर्पण करता है‚ मुझमें परायण रहता है‚ मेरा भक्त बनता है, आसक्ति का त्याग करता है और प्राणी मात्र में द्वेषरहित होकर रहता है‚ वह मुझे पाता है।' जिसका संसार में किसी से वैर नहीं‚ जो तटस्थ रहकर संसार की निरपेक्ष सेवा करता है‚ जो-जो करता है‚ सब मुझे अर्पित कर देता है‚ मेरी भक्ति से सराबोर है‚ क्षमावान‚ निःसंग‚ विरक्त‚ प्रेममय जो भक्त है‚ वह परमेश्वर के हाथ का हथियार बनता है‚ ऐसा यह सार है।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. रविवार‚ 1–5–32

संबंधित लेख

गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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