गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 122

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ग्यारहवां अध्याय
विश्वरूप-दर्शन
57. विराट विश्वरूप पचेगा भी नहीं

10. अलावा वह विराट दर्शन मुझे सहन भी कैसे होगा? छोटे, सगुण सुंदर रूप के प्रति मुझे जो प्रेम मालूम होता है‚ जो अपनापन लगता है‚ जो मधुरता मालूम होती है‚ उसका अनुभव विश्वरूप देखने में कदाचित न हो। यही स्थिति अर्जुन की हो गयी। वह थर-थर कांपते हुए अंत में कहता है‚ "भगवानǃ अपना वही पहले वाला मनोहर रूप दिखाओ।" अर्जुन स्वानुभव से कहता है कि विराट स्वरूप देखने की इच्छा मत करो। यही अच्छा है कि ईश्वर जो तीनों कालों और तीनों स्थलों में व्याप्त है‚ वैसा ही रहे। वह सिमट कर यदि धधकता हुआ गोला बनकर मेरे सामने आ खड़ा हो‚ तो मेरी क्या दशा होगीǃ ये तारे कितने शांत दिखायी देते हैंǃ ऐसा प्रतीत होता है‚ मानो इतनी दूर से वे मुझसे बात कर रहे हों। परंतु दृष्टि को शांत करने वाली वही तारिका यदि निकट आ जाये तो? वह धधकती हुई आग ही है। मैं उसमें भस्म ही होकर रहूँगा। ईश्वर के ये अनंत ब्रह्मांड जहाँ हैं‚ वहाँ वैसे ही रहने दीजिए। उन सबको एक ही कमरे में इकट्ठा कर देने में क्या आनंद हैॽ बंबई के उस कबूतरखाने में हजारों कबूतर रहते हैं‚ वहाँ क्या मुक्तता है? वह दृश्य बड़ा अटपटा मालूम होता है। यह सृष्टि ऊपर‚ नीचे‚ यहाँ तीनों स्थलों में विभाजित है। इसी में मजा है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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