ग्यारहवां अध्याय
विश्वरूप-दर्शन
57. विराट विश्वरूप पचेगा भी नहीं
10. अलावा वह विराट दर्शन मुझे सहन भी कैसे होगा? छोटे, सगुण सुंदर रूप के प्रति मुझे जो प्रेम मालूम होता है‚ जो अपनापन लगता है‚ जो मधुरता मालूम होती है‚ उसका अनुभव विश्वरूप देखने में कदाचित न हो। यही स्थिति अर्जुन की हो गयी। वह थर-थर कांपते हुए अंत में कहता है‚ "भगवानǃ अपना वही पहले वाला मनोहर रूप दिखाओ।" अर्जुन स्वानुभव से कहता है कि विराट स्वरूप देखने की इच्छा मत करो। यही अच्छा है कि ईश्वर जो तीनों कालों और तीनों स्थलों में व्याप्त है‚ वैसा ही रहे। वह सिमट कर यदि धधकता हुआ गोला बनकर मेरे सामने आ खड़ा हो‚ तो मेरी क्या दशा होगीǃ ये तारे कितने शांत दिखायी देते हैंǃ ऐसा प्रतीत होता है‚ मानो इतनी दूर से वे मुझसे बात कर रहे हों। परंतु दृष्टि को शांत करने वाली वही तारिका यदि निकट आ जाये तो? वह धधकती हुई आग ही है। मैं उसमें भस्म ही होकर रहूँगा। ईश्वर के ये अनंत ब्रह्मांड जहाँ हैं‚ वहाँ वैसे ही रहने दीजिए। उन सबको एक ही कमरे में इकट्ठा कर देने में क्या आनंद हैॽ बंबई के उस कबूतरखाने में हजारों कबूतर रहते हैं‚ वहाँ क्या मुक्तता है? वह दृश्य बड़ा अटपटा मालूम होता है। यह सृष्टि ऊपर‚ नीचे‚ यहाँ तीनों स्थलों में विभाजित है। इसी में मजा है।
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