गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 121

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ग्यारहवां अध्याय
विश्वरूप-दर्शन
56. छोटी मूर्ति में भी पूर्ण दर्शन संभव

9. परमेश्वर सर्वत्र भिन्न–भिन्न वस्तुओं में भिन्न-भिन्न गुणों के द्वारा प्रकट हुआ है‚ इसीलिए हमें आनंद होता है‚ और उस वस्तु के प्रति आत्मीयता प्रतीत होती है। जो आनंद होता है‚ वह अकारण नहीं। आनंद क्यों होता है? उससे हमारा कुछ-न-कुछ संबंध रहता है‚ इसी से आनंद होता है। बच्चे को देखते ही माँ को आनंद होता है; क्योंकि वह संबंध पहचानती है। इसी तरह प्रत्येक वस्तु से परमात्मा का नाता जोड़ो। मुझमें जो परमेश्वर है, वही उस वस्तु में है। इस प्रकार का संबंध बढ़ाना ही आनंद बढ़ाना है।

आनंद की और कोई उपपत्ति नहीं है। आप प्रेम का संबंध सब जगह जोड़ने लगिए‚ फिर देखिए‚ क्या चमत्कार होता है। फिर अनंत सृष्टि में व्याप्त परमात्मा अणु-रेणु में दिखायी देगा। एक बार यह दृष्टि आ जाये‚ तो फिर क्या चाहिए? परंतु इसके लिए इंद्रियों को आदत डालने की जरूरत है। हमारी भोग-वासना छूटकर जब हमें प्रेम की पवित्र दृष्टि प्राप्त होगी‚ तब फिर प्रत्येक-वस्तु में ईश्वर दिखायी देगा। उपनिषदों में आत्मा का रंग कैसा है, इसका बड़ा सुंदर वर्णन है। आत्मा का रंग कौन-सा बताया जाये? ऋषि प्रेमपूर्वक कहते हैं- यथा अयं इंद्रगोपः। यह जो लाल-लाल रेशम-सा मुलायम इंद्रगोप है, मृग का कीड़ा है - बीरबहूटी है‚ उसकी तरह आत्मा का रूप है। उस इंद्रगोप को देखते हैं‚ तो कितना आनदं होता हैǃ यह आनंद क्यों होता है? मुझमें जो भाव है‚ वही उस इंद्रगोप में है। मुझसे उसका कोई संबंध न होता‚ तो आनंद होता? मेरे अंदर जो सुंदर आत्मा है‚ वही इंद्रगोप में भी है। इसीलिए उसकी उपमा दी। उपमा क्यों देते हैं? उससे आनंद क्यों होता है? हम उपमा इसलिए देते है कि उन दो वस्तुओं में साम्य होता है और इसी से आनंद होता है। यदि उपमेय और उपमान सर्वथा भिन्न हों‚ तो आनंद नहीं आयेगा। यदि कोई कहे कि ‘नमक मिर्च की तरह’‚ तो हम उसे पागल कहेंगे। पर यदि कोई यह कहे कि ‘तारे फूलों की तरह हैं’‚ तो उनमें साम्य दिखायी देने से आनंद होगा। नमक मिर्च की तरह है‚ ऐसा करने से सादृश्य का अनुभव नहीं होता। परंतु किसी की दृष्टि यदि इतनी विशाल हो गयी हो‚ उसे ऐसा दर्शन हुआ हो कि जो परमात्मा नमक में है‚ वही मिर्च में है‚ वह ‘नमक कैसा?’ तो ‘मिर्च की तरह है’ इस कथन में भी आनंद अनुभव करेगा। सारांश यह है कि ईश्वरीय रूप प्रत्येक वस्तु में ओतप्रोत है। उसके लिए विराट दर्शन की आवश्यकता नहीं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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