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दूसरा अध्याय
सब उपदेश थोड़े में: आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि
7. जीवन-सिद्धान्त: (2) देहातीत आत्मा का भान
8. देह तो कपड़े की तरह है। पुराने फट जाते हैं, इसी से तो नये धारण किये जा सकते हैं। यदि कोई एक शरीर आत्मा से सदा के लिए चिपका रहता, तो आत्मा की बुरी गति होती। सारा विकास रुक जाता, आनंद हवा हो जाता और ज्ञानप्रभा मन्द पड़ जाती। अतः देह का नाश शोचनीय नहीं। हाँ, यदि आत्मा का नाश होता, तो अलबत्ता वह एक शोचनीय बात होती। पर वह तो अविनाशी है, वह तो मानों एक अखंड बहता हुआ झरना है। उस पर अनेक देह आते और जाते हैं। इसलिए देह के नाते-रिश्तों के चक्कर में पड़कर शोक करना और ये मेरे तथा पराये हैं, ऐसे भेद या टुकड़े करना सर्वथा अनुचित है। यह सारा ब्रह्मांड मानों एक सुन्दर बुनी हुई चादर है। कोई छोटा बच्चा जैसे हाथ में कैंची लेकर चादर के टुकड़े-टुकड़े कर देता है, वैसे ही इस देह के जितनी कैंची लेकर उस विश्वात्मा के टुकड़े करना कितना लड़कपन और कितनी हिंसा है!
सचमुच, यह बड़े दुःख की बात है कि जिस भारत भूमि में ब्रह्मविद्या ने जन्म पाया, उसी में इन छोटे-बड़े गुटों, फिरकों और जातियों की चारों ओर भरमार दिखायी देती है और मरने का तो इतना भय हमारे मन में घर कर गया है कि वैसा शायद ही कहीं दूसरी जगह हो! इसमें कोई शक नहीं कि दीर्घकालीन परतंत्रता का यह परिणाम हैं, परन्तु यह बात भूल जाने से भी काम नहीं चलेगा कि वह भय भी इस परतंत्रता का एक कारण है।
9. ‘मरण’ शब्द भी हमें नहीं सुहाता। मरण का नाम लेना ही हमें अमंगल मालूम होता है। ज्ञानदेव को बड़े दुःख के साथ लिखना पड़ा है- अगा मर हा बोलु न साहती। आणि मेलिया तरी रडती॥ जब कोई मर जाता है, तो कितना रोना-चिल्लाना मचाते हैं! मानों वह हमारा एक कर्त्तव्य ही हो। किराये पर रोने वाले बुलाने तक बात जा पहुँची है। मृत्यु निकट आ जाने पर भी हम रोगी को नहीं बताते। यदि डॉक्टर ने कह दिया हो कि यह नही बचेगा तो रोगी को भ्रम में रखेंगे खुद डॉक्टर भी साफ-साफ नहीं कहेगा। आखिरी दम तक गले में दवा उड़ेलता रहेगा। इसके बजाय यदि सच्ची बात बताकर, धीरज- दिलासा देकर, उसे ईश्वर स्मरण की ओर लगाया जाये, तो कितना उपकार हो! किन्तु उन्हें डर लगता है कि कहीं धक्के से यह मटका पहले ही न फूट जाये! परन्तु भला क्या निश्चित समय से पहले यह मटका फूटने वाला है? और फिर जो मटका दो घंटे बाद फूटनेवाला है, वह थोड़ा पहले ही फूट गया, तो बिगड़ गया? इसके मायने यह नहीं कि हम कठोर-हृदय और प्रेम-शून्य बन जायें। किन्तु देहासक्ति प्रेम नहीं है। उलटे, देहासक्ति को दूर किये बिना सच्चे प्रेम का उदय ही नहीं होता।
जब देहासक्ति दूर होगी, तब यह मालूम होगा कि देह तो सेवा का एक साधन है। और तब देह को उसके योग्य प्रतिष्ठा भी प्राप्त होगी। परन्तु आज तो हम देह की पूजा को ही अपना साध्य मान बैठे हैं। हम यह बात भी भूल गये हैं कि साध्य तो स्वधर्माचरण है। स्वधर्माचरण के लिए देह को संभालना चाहिए, उसे खिलाना-पिलाना चाहिए। केवल जीभ के चोचले पूरे करने की जरूरत नहीं। चम्मच से चाहे हलुआ परोसो, चाहे दाल-भात, उसे उसका कोई सुख-दुःख नहीं। ऐसी ही स्थिति जीभ की होनी चाहिए- उसे रस-ज्ञान तो हो, पर सुख-दुःख न हो। शरीर का भाड़ा शरीर को चुका दिया, बस खतम। चरखे से सूत कात लेना है, इसलिए उसमें तेल देने की आवश्यकता है। इसी तरह शरीर से काम लेना है, इसलिए उसमें कोयला डालना जरूरी है। इस प्रकार यदि हम देह का उपयोग करें, तो मूलतः क्षुद्र होने पर भी उसका मूल्य बढ़ सकता है और उसे प्रतिष्ठा प्राप्त हो सकती है।
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