गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 119

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ग्यारहवां अध्याय
विश्वरूप-दर्शन
56. छोटी मूर्ति में भी पूर्ण दर्शन संभव

6. उस दिव्य रूप का सुंदर वर्णन‚ भव्य वर्णन‚ इस अध्याय में है। इतना सब होते हुए भी कहना चाहिए कि विश्वरूप के लिए मुझे कोई खास लोभ नहीं। मैं छोटे-से रूप पर ही संतुष्ट हूँ। जो छोटा-सा सुंदर मनोहर रूप मुझे दीखता है‚ उसकी माधुरी का अनुभव करना मैं सीख गया हूँ। परमेश्वर टुकड़ों में विभाजित नहीं है। मुझे ऐसा नहीं लगता कि परमेश्वर का जो रूप हम देख पाते हैं‚ वह उसका एक टुकड़ा है और शेष परमेश्वर बाहर बचा हुआ है। बल्कि मैं देखता हूँ कि जो परमेश्वर इस विराट विश्व में व्याप्त है‚ वही संपूर्ण रूप में जैसा-का-तैसा एक छोटी-सी मूर्ति में‚ मिट्टी के एक कण में भी व्याप्त है। उसमें कोई कमी नही। अमृत के सिंधु में जो मिठास है‚ वही एक बिंदु में भी होती है। मुझे लगता है‚ अमृत की जो एक छोटी–सी बूंद मुझे मिल गयी है‚ उसी की मिठास मैं चखूं।

अमृत का दृष्टांत मैंने जान-बूझकर लिया है। पानी या दूध का दृष्टांत नहीं लिया है। एक प्याले दूध में जो मिठास होगी‚ वही मिठास लोटे भर दूध में होगी‚ परंतु मिठास चाहे वही हो‚ पुष्टि उतनी ही नहीं है। एक बूंद दूध की अपेक्षा एक प्याले दूध में पुष्टि अधिक है। परंतु अमृत के उदाहरण में यह बात नहीं है। अमृत के समुद्र की मिठास तो अमृत के एक बूंद में है ही’ उसके अलावा पुष्टि भी उतनी ही है। बूंद भर अमृत भी गले के नीचे उतर गया‚ तो उससे अमृतत्त्व ही मिलेगा।

उसी तरह जो दिव्यता‚ पवित्रता परमेश्वर के विराट स्वरूप में है‚ वही एक छोटी–सी मूर्ति में भी है। किसी ने मुट्ठी भर गेहूँ मुझे नमूने के तौर पर लाकर दिये‚ तब भी यदि मुझे गेहूँ की पहचान न हुई‚ तो फिर बोरी भर गेहूँ भी यदि मेरे सामने रख दिये जाये‚ तो वह कैसे होगी? ईश्वर का जो छोटा नमूना मेरी आंखों के सामने है‚ उससे यदि ईश्वर को मैंने नहीं पहचाना’ तो फिर विराट परमेश्वर को देखकर भी मैं कैसे पहचानूंगा? छोटे-बड़े में क्या है? छोटे रूप को पहचान लिया‚ तो बड़े की पहचान हो ही गयी। अतः मुझे यह आकांक्षा नहीं होती कि ईश्वर अपना बड़ा रूप मुझे दिखाये। अर्जुन की तरह विश्वरूप-दर्शन की मांग करने की योग्यता भी मुझमें नहीं है।

फिर जो कुछ मुझे दीखता है‚ वह विश्वरूप का कोई टुकड़ा है‚ ऐसी बात नहीं। किसी टूटी तस्वीर का कोई टुकड़ा ले आये‚ तो उससे सारे चित्र का खयाल हमें नहीं हो सकता। परंतु परमात्मा इस तरह टुकड़ों से बना हुआ नहीं है। परमात्मा न कटा हुआ है‚ न खंड-खंड किया हुआ है। एक छोटे-से स्वरूप में भी वह अनंत परमेश्वर सारा-का-सारा समाया हुआ है। छोटे-फोटो और बड़े फोटो में क्या अंतर है? जो बातें बड़े फोटो में होती हैं वही सब जैसी-की-तैसी छोटे फोटो में भी होती हैं। छोटा फोटो बड़े फोटो का टुकड़ा नहीं है। छोटे टाइप के अक्षर हों‚ तो भी वही अर्थ होगा और बड़े टाइप के अक्षर हो तो भी वही होगा। बड़े टाइप में बड़ा अर्थ और छोटे में छोटा अर्थ होता हो‚ सो बात नहीं। मूर्ति-पूजा का आधार यही विचार-पद्धति है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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