गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 118

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ग्यारहवां अध्याय
विश्वरूप-दर्शन
55. विश्वरूप-दर्शन की अर्जुन की उत्कंठा

3. यह विशाल सृष्टि परमेश्वर के स्वरूप का एक पहलू है। अब उसका दूसरा पहलू लो। वह है काल। यदि हम पिछले काल पर दृष्टि दौड़ायें‚ तो इतिहास की मर्यादा में बहुत हुआ तो दस-बीस हजार साल तक पीछे जा सकेंगे। आगे का काल तो ध्यान में ही नहीं आता। इतिहास-काल दस–बीस हजार वर्षों का और स्वयं हमारा जीवन-काल तो मुश्किल से सौ साल का हैǃ वास्तव में काल का विस्तार अनादि और अनंत है। कितना काल बीता है, इसका कोई हिसाब नहीं। आगे कितना काल है, इसकी कोई कल्पना नहीं होती। जैसे विश्व की तुलना में हमारा ‘जगत्’ सर्वथा तुच्छ है‚ वैसे ही इतिहास के ये दस-बीस हजार साल अनंत काल की तुलना में कुछ भी नहीं हैं। भूतकाल अनादि है और भविष्यकाल अनंत है। यह छोटा-सा वर्तमान काल सचमुच कहाँ है‚ वह बताने जाते हैं‚ तब तक वह भूतकाल में विलीन हो जाता है। ऐसा यह अत्यंत चपल वर्तमान काल मात्र हमारा है। मैं अभी बोल रहा हूं‚ परंतु मुंह से शब्द निकला कि वह भूतकाल में विलीन हुआǃ ऐसी यह महान काल-नदी सतत बह रही है। न उसके उद्गम का पता है न अंत का। बीच का थोड़ा-सा प्रवाहमात्र हमें दिखायी देता है।

4. इस प्रकार एक और स्थल का प्रचंड विस्तार और दूसरी ओर काल का प्रचंड प्रवाह- इन दोनों दृष्टियों से सृष्टि की ओर देखेंगे‚ तो समझ में आयेगा कि कल्पना-शक्ति को चाहे जितना खींचने पर भी इसका कोई अंत नहीं लगने वाला। तीनों काल और तीनों स्थल में‚ भूत-भविष्य-वर्तमान में एवं ऊपर-नीचे‚ यहां-वहां‚ सब जगह व्याप्त विराट परमेश्वर‚ वह एक ही समय एकत्र दिखायी दे‚ परमेश्वर का इस रूप में दर्शन ही‚ ऐसी इच्छा अर्जुन के मन में उत्पन्न हुई है। इस इच्छा में से ग्यारहवां अध्याय निकला है।

5. अर्जुन भगवान को बहुत प्यारा था। कितना प्यारा था? इतना कि दसवें अध्याय में किन–किन स्वरूपों में मेरा चिंतन करो‚ यह बताते हुए भगवान कहते है- "पांडवों में जो अर्जुन है‚ उसके रूप में मेरा चिंतन करो।" श्रीकृष्ण कहते हैं– पाण्डवानां धनंजयः। इससे अधिक प्रेम का पागलपन‚ प्रेमोन्मत्तता कहाँ होगी? यह इस बात का उदाहरण है कि प्रेम कितना पागल हो सकता है। अर्जुन पर भगवान की अपार प्रीति थी। यह ग्यारहवां अध्याय उस प्रीति का प्रसाद रूप है। दिव्य रूप देखने की अर्जुन की इच्छा को भगवान उसे दिव्यदृष्टि देकर पूरा किया। अर्जुन को उन्होंने प्रेम का प्रसाद दिया।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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